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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *121 स्वार्थव्यवसायात्मकत्वस्य मानान्न निर्विकल्पकत्वानुमानं नाम। न हींद्रियगतरध्यवसायात्मकत्वे स्मरणं युक्तं क्षणिकत्वादिदर्शनवत् अभ्यासादेर्गोदर्शनस्मृतिरितिचेन, तस्य व्यवसायादन्यस्य विचारासहत्वात्॥ तदकल्पकमर्थस्य सामर्थ्येन समुद्भवात् / अर्थक्षणवदित्येके न विरुद्धस्यैव साधनम् // 16 // जात्याद्यात्मकभावस्य सामर्थ्येन समुद्भवात्। सविकल्पकमेव स्यात् प्रत्यक्षं स्फुटमंजसा // 17 // परमार्थे विशदं सविकल्पकं प्रत्यक्षं न पुनरविकल्पकं वैशद्यारोपात्। ननु कथं तज्जात्याद्यात्मकादर्थादुपजायेताविकल्पान्न हि वस्तु सत्सु जातिद्रव्यगुणकर्मसु शब्दा: संति तदात्मानो वा येन तेषु प्रतिभासमानेषु प्रतिभासेरन् / न च तत्र शब्दात्प्रतीतौ कल्पना युक्ता तस्याः शब्दाप्रतीतिलक्षणत्वादशब्दकल्पनानामसंभवात् / ततो न विरुद्धो हेतुरिति चेत्। अत्रोच्यतेउस इन्द्रिय ज्ञान का स्मरण हो जाता है। इस प्रकार उस इन्द्रियज्ञप्ति (यानी प्रत्यक्ष के स्वार्थ का निश्चय करा देने रूप) धर्म का अनुमान हो जाता है। किन्तु प्रत्यक्ष के निर्विकल्पकत्व का कभी भी अनुमान नहीं होता है। इन्द्रियजन्यज्ञान को निर्णयस्वरूप न मानने पर स्मरण होना युक्त नहीं है। जैसे कि क्षणिकपन आदि का अनध्यवसायरूप दर्शन हो जाने पर स्मरण नहीं होता है। तथा गौ का निर्विकल्पक दर्शन हो जाने पर भी अभ्यास आदि द्वारा निर्विकल्पकज्ञान की स्मृति हो सकती है-ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि वे अभ्यास आदि निश्चय से भिन्न कोई पृथक् पदार्थ नहीं हैं। भावार्थ : विलक्षण प्रकार से धारित ज्ञान ही संस्कार, अभ्यास, बुद्धिचातुर्य, निश्चय, स्मृतिहेतु ' आदि नामों को धारण करता है अन्य कोई ज्ञान नहीं। . - अर्थ के सामर्थ्य से उत्पन्न होने से प्रत्यक्ष ज्ञान कल्पना से रहित निर्विकल्पक है, जैसे अर्थजन्य हुई उसी अर्थ की उत्तर क्षण की पर्याय निर्विकल्पक है। इस प्रकार कोई कहता है परन्तु उसका यह कथन विरुद्ध का ही साधन होने से ठीक नहीं है। अर्थात् निर्विकल्पक अर्थ के निमित्त से उत्पन्न होना हेतुविरुद्ध है तथा जाति आदि वास्तविक पदार्थों के सामर्थ्य से समुत्पन्न होने के कारण प्रत्यक्षज्ञान सविकल्पक है वह निर्दोष और स्पष्ट है। (अतः प्रत्यक्ष में निर्विकल्प को सिद्ध करने के लिए दिया गया बौद्धों का निर्विकल्पक अर्थ की सामर्थ्य से उत्पन्न होना यह हेतु विरुद्ध है)॥१६-१७॥ परमार्थ रूप से प्रत्यक्षज्ञान विशद और सविकल्पक है, निर्विकल्पक नही, क्योंकि उसमें वैशद्य का वस्तुभूत आरोप हो रहा है। अर्थात् जो विशद होता है, वह ज्ञान सविकल्पक होता है। - शंका : वह प्रत्यक्ष ज्ञान जाति आदि स्वरूप अविकल्प अर्थ से कैसे उत्पन्न होता है? समाधान : क्योंकि वस्तुभूत जाति, द्रव्य, गुण और कर्म इन अर्थों में शब्द की प्रवृत्ति नहीं होती है। तथा वे शब्द उन जाति आदि आत्मक नहीं हैं जिससे कि उन जाति आदिकों के प्रतिभासित उनके वाचक शब्द भी प्रतिभासित होते तथा जब तक उन अर्थों में शब्द की प्रतीति नहीं होती है, तब तक अर्थों में जाति आदि की कल्पना करना उचित नहीं है क्योंकि, उस कल्पना का लक्षण शब्द से प्रतीति होना माना गया है। शब्दों की योजना से रहित कल्पना असम्भव है अत: हमारा हेतु विरुद्ध नहीं है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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