________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 120 मतं तदा प्रत्यक्षलक्षणमसंभाव्यं च तादृशकल्पनापोढस्य कदाचिदसंभवात् व्यवसायात्मकमानसप्रत्यक्षोपगमविरोधश्च। केषांचित्संहतसकलविकल्पावस्थायां सर्वथा व्यवसायशन्यं प्रत्यक्षं प्रत्यात्मवेद्यं संभवतीति नासंभवि लक्षणमितिचेत् न, असिद्धत्वात्। यस्मात्संहृत्य सर्वतश्चित्तं स्तिमितेनांतरात्मना। स्थितोपि चक्षुषा रूपं स्वं च स्पष्टं व्यवस्यति // 13 // ततो न प्रत्यक्षं कल्पनापोढं प्रत्यक्षत एव सिद्ध्यति, नाप्यनुमानात्। तथाहिपुनर्विकल्पयन् किंचिदासीन्मे स्वार्थनिश्चयः। ईदृगित्येव बुध्येत प्रागिंद्रियगतावपि // 14 // ततोन्यथा स्मृतिर्न स्यात्क्षणिकत्वादिवत् पुनः / अभ्यासादिविशेषस्तु नान्यः स्वार्थविनिश्चयात् // 15 // अश्वं विकल्पयतः प्राग्न चेंद्रियगतावपीदृशः स्वार्थनिश्चयो ममासीदिति पश्चात् स्मरणात्तस्याः का लक्षण अंसभव हो जाएगा क्योंकि वैसी स्वार्थ निश्चयरूप कल्पना से रहित प्रत्यक्ष प्रमाण कभी संभव नहीं है। अर्थात् सर्व ही प्रत्यक्ष स्वार्थ व्यवसाय रूप ही है, तथा बौद्धों ने भी मानस प्रत्यक्ष को निश्चयस्वरूप स्वीकार किया है उसका विरोध हो जाता है। / किन्हीं जीवों के सम्पूर्ण विकल्पों के नष्ट हो जाने की अवस्था में सभी प्रकार व्यवसायों (विकल्पों) से रहित प्रत्यक्ष ज्ञान प्रत्येक आत्मा को स्वसंवेद्य होकर संभव हो रहा है अत: बौद्धों के द्वारा स्वीकृत प्रत्यक्ष का लक्षण असंभव दोष से युक्त नहीं है। ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि बौद्धों का उक्त कथन सिद्ध नहीं है, कारण कि सब ओर से चित्त का संकोच करके स्तम्भित या प्रशान्त हो रही अंतरंग आत्मा में स्थित पुरुष चक्षु द्वारा अपने ज्ञान को भीतर और रूप को बाहर स्पष्ट निर्णीत कर रहा है। अर्थात् संकल्पविकल्पों से रहित अवस्था में तो और भी अधिक स्पष्ट निर्णय होता है, स्वात्मा का स्पष्ट अनुभव होता है॥१३॥ ___ अत: प्रत्यक्ष प्रमाण कल्पनाओं से रहित है यह प्रत्यक्ष ज्ञान से सिद्ध नहीं हो सकता। तथा अनुमान से भी प्रत्यक्ष का अभीष्ट विकल्पों से रहितपना सिद्ध नहीं होता। तथाहि-पूर्व कालीन विचारों का बार-बार विकल्प करता हुआ जीव इस प्रकार का अनुमान कर लेता है कि पूर्व में इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष के होने पर उसे ऐसा कुछ स्वार्थ निर्णय हो चुका है, उस निश्चय से ही स्मरण होना बन सकता है। अन्यथा (इन्द्रियजन्य ज्ञान द्वारा स्वार्थ का निश्चय न होने पर) स्मृति नहीं हो सकती जैसे बौद्धों के स्वलक्षण का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष होने पर उससे अभिन्न क्षणिकपन का भी अनिश्चय आत्मक ज्ञान ही रहता है। उनका स्मरण वहीं होता है क्योंकि अनिश्चय ज्ञान का स्मरण नहीं होता है। यदि अभ्यास, बुद्धि, चातुर्य आदि विशेषों से स्मरण होना मानोगे तो वे अभ्यास आदि विशेषताएँ तो स्वार्थ का विशेष निश्चय हो जाने के अतिरिक्त और कोई भिन्न पदार्थ नहीं हैं। अर्थात्-अनिर्णयात्मक ज्ञान में अभ्यास आदि नहीं हो सकते क्योंकि स्मरणादि निश्चयात्मक पदार्थ के ही होते हैं॥१४-१५।। इन्द्रियगतज्ञान में घोड़े का विकल्प करने के पूर्व मेरे (जीव को) ऐसा स्वार्थ का निर्णय नहीं था परन्तु इन्द्रियजन्य ज्ञान के पश्चात् मुझको इस प्रकार का स्वार्थ निर्णय हो गया है जिस कारण कि पीछे भी