________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*११९ इत्यपरः। पादपादिसंस्थानमात्रे दवीयस्यापि स्पष्टत्वावस्थितेः। श्रुतत्वाभावादक्षव्यापारान्वयव्यतिरेकानुविधानाच्च प्रत्यक्षमेव तत् तथाविधकल्पनापोडं चेति सिद्धसाधनमेव। न हि सर्वमस्पष्टतर्कणं श्रुतमिति युक्तं स्मृत्यादेः श्रुतत्वप्रसंगात् व्यंजनावग्रहस्य वा। न हि तस्य स्पष्टत्वमस्ति परोक्षत्ववचनविरोधात् अव्यक्तशब्दादिजातग्रहणं व्यंजनावग्रह इति वचनाच्च मतिपूर्वमस्पष्टतर्कणं श्रुतमित्युपगमे तु सिद्धं स्मृत्यादिमतिज्ञानं व्यंजनावग्रहादि वा श्रुतं दविष्टपादपादिदर्शनं च प्रादेशिकं प्रत्यक्षमिति न किंचिद्विरुध्यते। यदि पुनर्नास्पष्टा प्रतीति: कल्पना यतस्तदपोहने प्रत्यक्षस्य सिद्धसाधनं। किं तर्हि? स्वार्थव्यवसितिः सर्वकल्पनेति प्रत्युत् जैनों के यहाँ ही दूरवर्ती पदार्थ के प्रत्यक्ष में वैशद्य न होने से अव्याप्ति दोष आता है। इस प्रकार किसी दूसरे वादी (बौद्ध) के कहने पर कोई दूसरा कहता है कि यह दूरवर्ती वृक्ष आदि का ज्ञान श्रुतज्ञान है, प्रत्यक्ष नहीं है, क्योंकि मतिज्ञान से जाने गये अर्थ के साथ संसर्ग रखने वाले अन्य पदार्थों की अविशद तर्कणा करने को श्रुतज्ञान कहा है. अतः कोई दोष नहीं है (यानी श्रुतज्ञान चाहे अस्पष्ट सविकल्पक हो परन्तु सभी प्रत्यक्षज्ञान तो अस्पष्ट कल्पना से रहित होने के कारण निर्विकल्पक हैं), क्योंकि दूरवर्ती वृक्ष के ज्ञान को प्रत्यक्ष माना गया है। दूरवर्ती वृक्ष के भी सामान्य वृक्ष संस्थान मात्र में स्पष्टपना अवस्थित है अतः उसमें श्रुतज्ञान का अभाव है तथा इन्द्रियों के होने पर दूरवर्ती वृक्ष का ज्ञान होने रूप अन्वय और इन्द्रियों के न होने पर वृक्ष का दर्शन नहीं होने रूप व्यतिरेक का अनुविधान करने से वह ज्ञान प्रत्यक्ष ही है, और सामान्य वृक्ष की रचना को स्पष्ट जानने में इस प्रकार अस्पष्ट कल्पना से रहित भी है। अत: बौद्धों के ऊपर सिद्धसाधन दोष तदवस्थ ही है। ... अस्पष्ट रूप से विचारने वाले सभी ज्ञानों को श्रुतज्ञान कहना युक्त नहीं है। क्योंकि ऐसा कहने पर स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, व्याप्तिज्ञान आदि के श्रुतज्ञानपने का प्रसंग आता है। तथा शब्द आदि को अव्यक्त जानने वाला व्यंजनावग्रह भी श्रुतज्ञान हो जाएगा। परन्तु वह व्यंजनावग्रह स्पष्ट नहीं है क्योंकि व्यंजनावग्रह को स्पष्ट मानने पर जैन सिद्धान्तानुसार व्यंजनावग्रह को परोक्ष कहने का विरोध आयेगा। अर्थात् स्पष्ट ज्ञान परोक्ष नहीं होता तथा अव्यक्त शब्द, रस, गंध अथवा स्पर्श को या उनके समुदायस्वरूप अर्थ को ग्रहण करना व्यंजनावग्रह है, ऐसा राजवार्त्तिक में कहा गया है। मतिपूर्वक उत्पन्न अस्पष्ट विचारने वाले ज्ञान को श्रुतज्ञान स्वीकार किया है अतः स्मृति आदि मतिज्ञान सिद्ध हो जाते हैं। व्यंजनावग्रह आदि भी मतिज्ञान हैं, श्रुतज्ञान नहीं हैं तथा अधिक दूरवर्ती वृक्ष आदि का देखना एकदेश से विशद सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है। व्यंजनावग्रह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नहीं है। ऐसा मानने में हम जैनों का कोई विरोध नहीं है। ___ यदि फिर कहो कि अस्पष्ट प्रतीति कल्पना नहीं है, जिससे कि प्रत्यक्ष की उस कल्पना से व्यावृत्ति करने पर सिद्ध साधन दोष हो सके। प्रश्न : कल्पना किसे कहते हैं? - उत्तर : स्व और अर्थ का निर्णय करना कल्पना है। ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसा कहने पर तो प्रत्यक्ष