________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 118 ततो नाव्यापीदं लक्षणं / नाप्यतिव्यापि क्वचिदकल्पनायाः स्पष्टत्वाभावात् / दूरात्पादपादिदर्शने कल्पनारहितेप्यस्पष्टत्वप्रतीतेरतिव्यापीदं लक्षणमिति चेन्न, तस्य विकल्पास्पष्टत्वेनैकत्वारोपादस्पष्टतोपलब्धः। स्वयमस्पष्टत्वे निर्विकल्पकत्वविरोधात्। ततो निरवद्यमिदं कल्पनालक्षणं / एतेन निश्चयः कल्पनेत्यपि निरवा विचारित, लक्षणांतरेणाप्येवंविधायाः प्रतीतेः कल्पनात्वविधानाद्गत्यंतराभावात्॥ तत्राद्यकल्पनापोढे प्रत्यक्षे सिद्धसाधनम् / स्पष्टे तस्मिन्नवैशद्यव्यवच्छेदस्य साधनात् // 10 // अस्पष्टप्रतिभासायाः प्रतीतेरनपोहने। प्रत्यक्षस्यानुमानादेर्भेदः केनावबुध्यते // 11 // स्वार्थव्यवसितिस्तु स्यात्कल्पना यदि संमता। तदा लक्षणमेतत्स्यादसंभाव्येव सर्वथा // 12 // . दविष्टपादपादिदर्शनस्यास्पष्टस्यापि प्रत्यक्षतोपगमात्कथं अस्पष्टप्रतीति लक्षणया कल्पनयापोळ प्रत्यक्षमिति वचने सिद्धसाधनमिति कश्चित्। श्रुतमेतन्न प्रत्यक्षं श्रुतमस्पष्टतर्कणं इति वचनात् ततो न दोष दूर देश से वृक्ष आदि के दृष्टिगोचर होने पर कल्पनारहित समीचीन ज्ञान में भी अस्पष्टपना प्रतीत होता है अत: कल्पना का यह लक्षण अतिव्याप्त है, ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि उस दूर से दिखने वाले प्रत्यक्ष को विकल्पज्ञान की अस्पष्टता के साथ एकपने का आरोप हो जाने से अविशदपना प्रतीत हे यदि वह दूर से देखे हुए वृक्ष का ज्ञान स्वयं अस्पष्ट होता तो निर्विकल्पकपने का विरोध आता है अतः अस्पष्टपना कल्पना का लक्षण अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव दोषों से रहित होने से निर्दोष है। इस उक्त कथन के द्वारा कल्पना का स्व और अर्थ निश्चय करना-यह लक्षण भी निर्दोष है, यह विचार कर दिया गया है। अन्य लक्षणों के कहने से भी इस प्रकार की प्रतीति से कल्पनापने का विधान हो जाता है। इसके अतिरिक्त कल्पना के लक्षण करने में अन्य कोई उपाय नहीं है। (अन्य कोई उपाय शेष नहीं है) कल्पना के उन लक्षणों में से आदि में कही गई कल्पना से अस्पष्ट प्रतिभास रहित यदि प्रत्यक्ष प्रमाण माना जाएगा तब तो सिद्धसाधन दोष आता है क्योंकि उस प्रत्यक्ष प्रमाण के स्पष्ट होने पर ही अवैशद्य के व्यवच्छेद की सिद्धि होती है। अर्थात् स्पष्टपने से अवैशद्य की व्यावृत्ति करने पर परोक्ष में अतिव्याप्ति नहीं है। अविशद प्रतिभास वाली परोक्ष प्रतीति की यदि व्यावृत्ति नहीं की जाएगी तो प्रत्यक्ष प्रमाण का भेद अनुमान, आगम आदि से किस प्रमाण के द्वारा जान सकेंगे (अत: अविशद प्रतीति स्वरूप कल्पना से रहित प्रत्यक्ष निर्विकल्पक सिद्ध है। उस सिद्धि को सिद्ध करने से क्या लाभ है?)॥१०-११॥ स्व और अर्थ के निर्णय को यदि कल्पना मानेंगे तो यह कल्पना का लक्षण सर्वथा सम्मत ही है, क्योंकि किसी भी असत्य कल्पना में यह लक्षण नहीं जा सकता है। अर्थात् प्रमाणज्ञान ही स्व और अर्थ का निर्णय करता है अतः प्रत्यक्ष का लक्षण निर्विकल्प करना असम्भव व दोषयुक्त ही है॥१२॥ अतिदूरवर्ती वृक्ष आदि के अस्पष्ट दर्शन को भी प्रत्यक्षपना स्वीकार किया गया है, तो अस्पष्ट प्रतीति स्वरूप कल्पना से रहित प्रत्यक्ष है, ऐसे कथन में सिद्ध-साधन दोष कैसे हुआ?