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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 117 केवलबाधनसंभवात्। ततः प्रसिद्धात्सुनिर्णीतासंभवद्बाधकत्वात्स्वसंवेदनवन्महीयसां प्रत्यक्षमकलंकमस्तीति प्रतीयते प्रपंचतोऽन्यत्र तत्समर्थनात्॥ प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रांतमिति केचन। तेषामस्पष्टरूपा स्यात् प्रतीति: कल्पनाथवा // 8 // स्वार्थव्यवसितिर्नान्या गतिरस्ति विचारतः। अभिलापवती वित्तिस्तद्योग्या वापि सा यतः॥९॥ ____ अस्पष्टा प्रतीति: कल्पना, निश्चितिर्वा कल्पना इति परिस्फुटं कल्पना लक्षणमनुक्त्वा अभिलापवती प्रतीतिः कल्पनेत्यादि तल्लक्षणमाचक्षाणो न प्रेक्षावान् ग्रंथगौरवापरिहारात्। न हि काचित्कल्पना स्पष्टास्ति विकल्पानुविद्धस्य स्पष्टार्थप्रतिभासता इति वचनात् / स्वप्नवती प्रतीतिरस्तीतिचेन्न, तस्याः सौगतैरिंद्रियजत्वेनाभ्युपगमात् स्वप्नातिकेंद्रियव्यापारान्वयव्यतिरेकानुविधानात् मानसत्वे तस्या तदनुपपत्तेः। मरीचिकासु तोयप्रतीतिः स्पष्टेति चेन्न, तस्याः स्वयमस्पष्टत्वेपि मरीचिकादर्शनस्पष्टत्वाध्यारोपात्तथावभासनात् / बौद्ध के द्वारा स्वीकृत प्रत्यक्ष ज्ञान के लक्षण का खण्डन : कोई (बौद्ध) प्रत्यक्ष का लक्षण कल्पनाओं से रहित और अभ्रान्त मानते हैं। उनसे जैन आचार्य पूछते हैं कि कल्पना का स्वरूप क्या है? क्या अस्पष्टस्वरूप प्रतीति करना कल्पना है? अथवा ज्ञान द्वारा अपना और अर्थ का निश्चय करना कल्पना है? या शब्दयोजना सहित होकर ज्ञप्ति होना कल्पना है? या शब्दसंसर्गयोग्य प्रतिभास होना कल्पना मानी गई है? विचार करने से अन्य कोई गति नहीं है जिससे कि वह कल्पना सिद्ध हो सकती हो॥८-९॥ - अविशद प्रतीति होना कल्पना है अथवा निश्चयस्वरूप विकल्प होना कल्पना है। इस प्रकार अधिक स्फुटरूप से कल्पना के लक्षण को नहीं कहकर शब्दयोजना वाली प्रतीति कल्पना है (वस्तु को नहीं छूने वाली परिच्छित्ति कल्पना है) इत्यादि रूप से कल्पना के लक्षणों को कहने वाले विचारशालिनी बुद्धि के धारक नहीं हैं, क्योंकि इस प्रकार से ग्रन्थ के गौरव का परिहार नहीं हो सकता, क्योंकि कोई भी कल्पना स्पष्ट नहीं है। बौद्धों ने स्वयं अपने ग्रन्थ में कहा है कि कल्पना से ओतप्रोत अर्थ का स्पष्ट प्रतिभास नहीं हो पाता है। “स्वप्न में प्रतीति स्पष्ट होती हुई भी कल्पना है।" ऐसा भी न कहना। क्योंकि स्वप्न वाली ज्ञप्ति को बौद्धों ने इन्द्रियजन्य ज्ञान स्वीकार किया है। स्वप्न के निकट इन्द्रियों के व्यापार का अन्वयव्यतिरेक रूप से अनुकरण किया जाता है। यदि उस स्वप्न की ज्ञप्ति को मन इन्द्रियजन्य मानेगा तो बहिरङ्ग इन्द्रियों के साथ अन्वयव्यतिरेक नहीं होगा। कल्पनास्वरूप मरीचिका (बालू, रेत) से जल की प्रतीति स्पष्ट होती है, ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि वह जलज्ञान, यद्यपि स्वयं अस्पष्ट है, फिर भी मरीचिका के चाक्षुष प्रत्यक्ष में विद्यमान स्पष्टता को जलज्ञान में पूरी आरोपित कर देने से स्पष्ट प्रतिभास हो जाता है अत: कल्पना का अस्पष्ट लक्षण अव्याप्ति दोषयुक्त नहीं है और इस लक्षण की कहीं अतिव्याप्ति भी नहीं है क्योंकि कल्पनारहित ज्ञान में अस्पष्टता का अभाव है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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