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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 126 येपि चात्ममनोक्षार्थसन्निकर्षोद्भवं विदुः। प्रत्यक्षं नेश्वराध्यक्षं संग्रहस्तैः कृतो भवेत् // 33 // नेश्वरस्याक्षजज्ञानं सर्वार्थविषयत्वतः। नाक्षैः सर्वार्थसंबंधः सहैकस्यास्ति सर्वथा // 34 // योगजाज्ज्ञायते यत्तु ज्ञानं धर्मविशेषतः। न संनिकर्षजं तस्मादिति न व्यापि लक्षणं // 35 // ननु च योगजाद्धर्मविशेषात् सर्वार्थैरक्षसन्निकर्षस्ततः सर्वार्थज्ञानमित्यक्षार्थसन्निकर्षजमेव तत्। नैतत्सारं / तत्राक्षार्थसन्निकर्षस्य वैयर्थ्यात् / योगजो हि धर्मविशेषः सर्वार्थाक्षसन्निकर्षमुपजनयति न पुनः साक्षात्सर्वार्थज्ञानमिति स्वरुचिप्रदर्शनमात्रं, विशेषहेत्वभावादित्युक्तप्रत्ययम्॥ श्रोत्रादिवृत्तिरध्यक्षमित्यप्येतेन चिंतितं। तस्या विचार्यमाणाया विरोधश्च प्रमाणतः॥३६॥ इंद्रियाण्यर्थमालोचयंति तदालोचितं मनः संकल्पयति तत्संकल्पितमहंकारोभिमन्यते तदभिमतं जो भी विद्वान् प्रत्यक्ष को आत्मा, मन, इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न हुआ मानते हैं, उनके द्वारा ईश्वर के प्रत्यक्ष का संग्रह नहीं हो सकता क्योंकि ईश्वर का ज्ञान इन्द्रियजन्य नहीं है, क्योंकि वह सम्पूर्ण अर्थों को विषय करने वाला है। एक जीव के एक साथ सम्पूर्ण अर्थों का इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध होना सर्वथा असम्भव है। यदि योग से उत्पन्न हुए विशेष अतिशयरूप धर्म से उत्पन्न हुआ ज्ञान सम्पूर्ण अर्थों को जान लेता है, ऐसा मानोगे तो प्रत्यक्ष सन्निकर्षजन्य नहीं रह सकता, अत: वह प्रत्यक्ष का इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष जन्यत्व लक्षण सम्पूर्ण लक्ष्यों में व्यापक नहीं होने से अव्याप्ति दोष से दूषित है॥३३३४-३५॥ वैशेषिक कहते हैं कि विशिष्ट समाधि से उत्पन्न हुए धर्मविशेष से इन्द्रियों का सम्पूर्ण अर्थों के साथ सन्निकर्ष हो जाता है। उससे सम्पूर्ण अर्थों का ज्ञान हो जाता है अतः सर्वज्ञ का ज्ञान भी इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न होता है। वैशेषिकों का यह कथन नि:सार है, क्योंकि उस सर्वज्ञ के प्रत्यक्ष में इन्द्रिय और अर्थ का सन्निकर्ष व्यर्थ पड़ता है। योग से उत्पन्न हुआ विशेष धर्म नियम से सम्पूर्ण अर्थों के साथ इन्द्रिय के सन्निकर्ष को तो उत्पन्न करा देता है, किन्तु फिर विशदरूप से सम्पूर्ण अर्थों के ज्ञान को साक्षात् नहीं करा सकता, अत: वैशेषिकों का यह कथन केवल स्वरुचि मात्र का प्रदर्शन है। इसमें कोई विशेष कारण नहीं है। इस बात को हम पूर्व में कई बार कह चुके हैं। जैन सिद्धान्तानुसार समाधि से ही एक विशिष्ट अतिशय- केवलज्ञान उत्पन्न होता है जिससे युगपत् सम्पूर्ण पदार्थों का प्रत्यक्ष हो जाता है; बीच में सन्निकर्ष की आवश्यकता नहीं है। जो (सांख्य) कान, आँख आदि इन्द्रियों का उघाड़ना, खोलना आदि वृत्ति को प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं, उनका भी इस उपर्युक्त कथन से खण्डन किया गया है, क्योंकि यदि उस इन्द्रियवृत्ति का प्रमाणों से विचार किया जाए तो विरोध दोष आता है। अर्थात् इन्द्रिय वृत्ति प्रत्यक्ष प्रमाण है, यह सांख्य मत के भी विरुद्ध है, अतः स्ववचन बाधित है॥३६॥ इन्द्रियाँ अर्थ का सामान्यरूप से आलोचन करती हैं कि रूप है, रस है, गन्ध है आदि। उस आलोचना किये गए अर्थ का पुन: मन संकल्प करता है (कि वह पदार्थ ऐसा होगा इत्यादि); पश्चात् संकल्प
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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