________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 108 परोक्षं ज्ञानमनालंबनमस्पष्टत्वान्मनोराज्यादिज्ञानवत् अतो न प्रमाणमित्येतदपि दुर्घटमेव / प्रत्यक्षमनालंबनं स्पष्टत्वाच्चंद्रद्वयज्ञानादिति तस्याप्यप्रमाणत्वप्रसंगात्। तथा च क्वेष्टस्य व्यवस्था उपायासत्त्वात्॥ अनालंबनता व्याप्तिर्न स्पष्टत्वस्य ते यथा। अस्पष्टत्वस्य तद्विद्धि लैंगिकस्यार्थवत्त्वतः // 11 // तस्यानर्थाश्रयत्वेर्थे स्यात्प्रवर्तकता कुतः। संबंधाच्चेन्न तस्यापि तथात्वेनुपपत्तितः // 12 // लिंगलिंगिधियोरेवं पारंपर्येण वस्तुनि। प्रतिबंधात्तदाभासशून्ययोरप्यवंचनम् // 13 // मणिप्रभामणिज्ञाने प्रमाणत्वप्रसंगतः। पारंपर्यान्मणौ तस्य प्रतिबंधाविशेषतः॥१४॥ सम्पूर्ण परोक्ष ज्ञान जानने योग्य विषयों से रहित है क्योंकि वे अविशद रूप से जानने वाले हैं। जैसे मानसिक काल्पनिक राज्य के ज्ञानादि विषय से रहित होते हैं (वह ज्ञान वास्तविक राज्य आदि वस्तुओं को स्पर्श करने वाला नहीं है) अतः कोई भी परोक्ष ज्ञान प्रमाण नहीं है। यह कहना भी युक्तियों से घटित नहीं होता है क्योंकि स्पष्ट ज्ञान होने से प्रत्यक्ष ज्ञान अपने ग्राह्य विषय को स्पर्श नहीं करता है, जैसे चन्द्रद्वय का ज्ञान स्पष्ट होता हुआ भी निर्विषय है। इस प्रकार प्रत्यक्ष के भी अप्रमाणपने का प्रसंग आता है और इससे अपने अभीष्ट तत्त्व की व्यवस्था कहाँ किस प्रमाण से हो सकेगी ? क्योंकि उपाय तत्त्व (प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रमाण, कोई भी) विद्यमान नहीं है अत: उपायतत्त्व का असत्त्व है। जैसे स्पष्टत्व की निर्विषयता के साथ व्याप्ति नहीं है अर्थात्-प्रत्यक्ष को निर्विषय सिद्ध करने वाला अनुमान ठीक नहीं है। उसी के समान अस्पष्टपने की भी निर्विषयता के साथ व्याप्ति नहीं बन पाती है क्योंकि, इसमें अनुमान से व्यभिचार आता है। सम्यक् अनुमान अस्पष्ट होते हुए भी अपने ग्राह्य अर्थ से सहित माना गया है। यदि उस अनुमान को अर्थवान् नहीं माना जाएगा तो अर्थ में उसको प्रवर्तकपना कैसे हो सकेगा? अनुमान द्वारा अवस्तुभूत सामान्य को जानकर फिर सामान्य का विशेष अर्थ के साथ सम्बन्ध हो जाने से अनुमान की अर्थ में प्रवर्तकता होती है, ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि सामान्य के सम्बन्धी विशेष को जानने वाला वह ज्ञान भी निर्विषय है ऐसी दशा में अर्थ में प्रवृत्ति नहीं बनती॥११-१२॥ बौद्ध के अनुसार लिंग और लिंगी को जानने वाले ज्ञानों का भी परम्परा से यथार्थ वस्तु में अविनाभाव संबंध है (समीचीन हेतु की साध्य सामान्य के साथ व्याप्ति है और साध्यसामान्य का स्वलक्षणस्वरूप यथार्थ वस्तु विशेष के साथ संबंध है)। अतः परम्परा से अनुमान प्रमाण वस्तुभूत अर्थ का स्पर्शी है। अनुमान प्रमाण से जानकर वस्तु की अर्थक्रिया में वंचना नहीं है। अर्थात् तदाभास से शून्य प्रत्यक्ष और अनुमान से ज्ञान वस्तु में वंचना नहीं है। इस प्रकार बौद्धों के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि तब तो मणि की प्रभा में हुए मणि के जानने वाले ज्ञान को भी प्रमाणपने का प्रसंग आएगा, क्योंकि उस मणिज्ञान का परम्परा से यथार्थ मणि में अविनाभावरूप से संबंध है। इन दोनों में कोई विशेषता नहीं है॥१३-१४ / अर्थात् किसी छेद से आने वाला मणि के प्रकाश का ज्ञान भी समीचीन हो जाएगा, क्योंकि वह मणि के साथ सम्बन्ध रखता है।