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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 109 यथैव न स्पष्टत्वस्यानालंबनतया व्याप्तित्वे स्वसंवेदनेन व्यभिचारात्तथैवास्पष्टत्वस्यानुमानेनानेकांतात् तस्याप्यनालंबनत्वे कुतोर्थे प्रवर्तकत्वं? संबंधादिति चेन्न, तस्याप्यनुपपत्तेः। यद्धि ज्ञानं यमर्थमालंबते तत्र तस्य कथं संबंधो नामातिप्रसंगात् / तदनेन यदुक्तं “लिंगलिंगिधियोरेवं पारंपर्येण वस्तुनि / प्रतिबंधात्तदाभासशून्ययोरप्यवंचन' इति तन्निषिद्धं, स्वविषये परंपरयापीष्टस्य संबंधस्यानुपपत्तेः सत्यपि संबंधे मणिप्रभायां मणिज्ञानस्य प्रमाणत्वप्रसंगाच्च तदविशेषात्॥ तच्चानुमानमिष्टं चेन्न दृष्टांतः प्रसिद्ध्यति। प्रमाणत्वव्यवस्थानेनुमानस्यार्थलब्धितः // 15 // न हि स्वयमनुमानं मणिप्रभायां मणिज्ञानमर्थप्राप्तितोनुमानस्य प्रमाणत्वव्यवस्थितौ दृष्टांतो नाम साध्यवैकल्यात्तथा॥ __ जिस प्रकार स्पष्टपने की विषयरहितपने के साथ व्याप्ति मानने पर स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के साथ व्यभिचार आता है, उसी प्रकार अस्पष्टपने की निर्विषयपने के साथ व्याप्ति होना मानने पर अनुमान से व्यभिचार आता है। यदि व्यभिचार निवृत्ति के लिए उस अनुमान को भी विषय रहित मानोगे तो उस अनुमान को अर्थ में प्रवर्तकपना कैसे बनेगा? सामान्य और विशेष का संबंध हो जाने से विशेषरूप अर्थ में अनुमान को प्रवर्तकपना है, ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि बौद्ध मतानुसार उस संबंध की भी सिद्धि नहीं होती है। कारण कि जो भी कोई ज्ञान जिस किसी अर्थ को विषय करता है, उस ज्ञान में उस अर्थ का संबंध कैसे कहा जा सकता है? (ज्ञान और अर्थ का कल्पना से किया गया विषयविषयिभाव संबंध है वह वृत्तिपने का नियामक नहीं है)। परन्तु चाहे जिसका संबंध मानने पर अतिप्रसंग दोष आता है अतः कल्पित संबंध से अनुमान को अर्थ में प्रवर्तकपना किसी भी प्रकार से नहीं हो सकता है। बौद्ध ने जो यह कहा था कि लिंग ज्ञान और साध्यज्ञान का इस प्रकार परम्परा से परमार्थभूत वस्तु में संबंध होने से अनुमान को अर्थ में प्रवर्तकपना है अतः हेत्वाभास या साध्याभासों से शून्य हेतु साध्यों के ज्ञान द्वारा कोई भी नहीं ठगाया जाता है। इस प्रकार का कथन भी इस कथन से निषेध कर दिया गया समझ लेना चाहिए, क्योंकि ज्ञान का अपने विषय में परम्परा से भी इष्ट किया गया संबंध नहीं बनता है अतः सम्बन्ध के होने पर भी यदि प्रमाणता मान ली जाएगी तो मणिप्रभा में हुए मणिज्ञान के प्रमाणपने का प्रसंग आता है। यहाँ उस परम्परा से अर्थ के साथ सम्बन्ध होने का कोई अन्तर नहीं है। वह मणिप्रभा में हुआ मणिज्ञान यदि अनुमान प्रमाण इष्ट है तो अर्थ की प्राप्ति से अनुमान को प्रमाणपन की व्यवस्था करने में कोई दृष्टान्त प्रसिद्ध नहीं है। अर्थात्-अर्थ की प्राप्ति होने से अनुमान प्रमाण है जैसे कि मणिप्रभा में मणिज्ञान। इस अनुमान का दृष्टान्त प्रसिद्ध नहीं है॥१५॥ अर्थ की प्राप्ति से अनुमान को प्रमाणपन की व्यवस्था करने में मणिज्ञान दृष्टान्त नहीं हो सकता क्योंकि मणिप्रभा में हुआ मणिज्ञान स्वयं अनुमान प्रमाण माना गया है और यह दृष्टान्त साध्य से विकल
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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