________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 107 किं पुनस्तदनुवर्तनात्सिद्धमित्याह;ज्ञानानुवर्तनात्तत्र नाज्ञानस्य परोक्षता। प्रमाणस्यानुवृत्तेर्न परोक्षस्याप्रमाणता // 6 // अक्षेभ्यो हि परावृत्तं परोक्षं श्रुतमिष्यते। यथा तथा स्मृति: संज्ञा चिंता चाभिनिबोधिकम् // 7 // अवग्रहादिविज्ञानमक्षादात्मा विधानतः। परावृत्ततयाम्नातं प्रत्यक्षमपि देशतः // 8 // श्रुतं स्मृत्याद्यवग्रहादि च ज्ञानमेव परोक्षं यस्मादाम्नातं तस्मान्नाज्ञानं शब्दादिपरोक्षमनधिगममात्रं वा - प्रतीतिविरोधात्॥ अस्पष्टं वेदनं केचिदर्थानालंबनं विदुः। मनोराज्यादि विज्ञानं यथैवेत्येव दुर्घटम् // 9 // स्पष्टस्याप्यवबोधस्य निरालंबनताप्तितः। यथा चंद्रद्वयज्ञानस्येति क्वार्थस्य निष्ठितः॥१०॥ फिर उस ज्ञान की अनुवृत्ति से क्या सिद्ध करना है? ऐसी आकांक्षा होने पर उत्तर है-इस सूत्र में (आदि के दो ज्ञान परोक्ष हैं) ज्ञान की अनुवृत्ति करने से अज्ञान, इन्द्रिय, संनिकर्ष आदि जड़ पदार्थों को परोक्षप्रमाणपना और प्रमाण की अनुवृत्ति करने से परोक्ष को अप्रमाणपना सिद्ध नहीं होता है क्योंकि इन्द्रियों से परावृत्त श्रुतज्ञान को परोक्ष इष्ट किया गया है अतः स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान भी परोक्ष हैं। अक्ष शब्द का अर्थ आत्मा करने से आत्मा से परावृत्त होने के कारण अवग्रह आदि विज्ञान यद्यपि पूर्वाचार्यों के सम्प्रदाय के अनुसार परोक्ष कहे गये हैं, फिर भी एकदेश विशद होने से प्रत्यक्ष भी हैं। अक्ष का अर्थ इन्द्रिय और अनिन्द्रिय भी ले लिया जाता है, किन्तु विशदपना रहना प्रत्यक्ष के लिए आवश्यक है॥६-७ 8 // जैसे श्रुतज्ञान, स्मृति आदि और अवग्रह आदि ज्ञान ही परोक्ष हैं, ऐसा पूर्व आम्नाय से प्राप्त है, उसी प्रकार शब्द, इन्द्रिय, संनिकर्ष आदि अज्ञान पदार्थ परोक्ष नहीं हैं। अथवा किसी स्वपर प्रमेय का अधिगम नहीं होना भी परोक्ष नहीं है क्योंकि जड़ या ज्ञानशून्य तुच्छ को परोक्ष प्रमाण मानने पर प्रतीति से विरोध आता है। प्रश्न : अविशद परोक्षज्ञान वास्तविक अर्थ को विषय करने वाला नहीं है-जैसे अपने मन के अनुसार कल्पित राजा, मंत्री आदि के अविशद ज्ञान उन वस्तुभूत राजा आदि को विषय नहीं करते हैं, उसी 'प्रकार सभी अविशदज्ञान अर्थ को विषय नहीं करते हैं, अत: निरालंब हैं। (बौद्ध) .... उत्तर : आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धों का कहना दुर्घट है यानी यह युक्तियों से घटित नहीं होता है क्योंकि ऐसा मानने पर विशदप्रत्यक्षज्ञान को भी आलम्बनरहितपने का प्रसंग आता है। जैसे एक चन्द्रमा में चन्द्रद्वय का ज्ञान आलम्बनरहित है इसमें अर्थ की प्रतिष्ठापना किस ज्ञान के द्वारा जानी जा सकती है। अर्थात् झूठे मनोराज्य को विषय करने वाले परोक्षज्ञान का दृष्टान्त देकर यदि सभी परोक्षज्ञान को निरालम्ब कह दिया जाएगा तो आँख में अंगुली लगाकर अविद्यमान दो चन्द्रों को देखने वाले चाक्षुष प्रत्यक्ष का दृष्टान्त देकर सम्पूर्ण प्रत्यक्ष ज्ञानों को भी निर्विषय कहा जा सकता है॥९-१०॥