________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 104 परोक्षमित्यनेन तस्य परोक्षप्रतिपादनात्। अवग्रहेहावायधारणानां स्मृतेश्च परोक्षत्ववचनात् तद्विरोध इति चेन्न, प्रत्यभिज्ञादीत्यत्र वृत्तिद्वयेन सर्वसंग्रहात् / कथं प्रत्यभिज्ञाया आदिः पूर्वं प्रत्यभिज्ञादीति स्मृतिपर्यंतस्य ज्ञानस्य संग्रहात् प्राधान्येनावग्रहादेरपि परोक्षत्ववचनात् प्रत्यभिज्ञा आदिर्यस्येति वृत्त्या पुनरभिनिबोधपर्यंतसंगृहीतेर्न काचित्परोक्षव्यक्तिरसंग्रहीता स्यात् / तत एव प्रत्यभिज्ञादीति युक्तं व्यवहारतो मुख्यतः स्वेष्टस्य परोक्षव्यक्तिसमूहस्य प्रत्यायनात् अन्यथा स्मरणादि परोक्षं तु प्रमाणे इति संग्रह इत्येवं स्पष्टमभिधानं स्यात् / ततः शब्दार्थाश्रयणान्न कश्चिद्दोषोत्रोपलभ्यते॥ आद्ये परोक्षम् // 11 // . पद से एक परोक्ष और एक ही विशद प्रत्यक्ष को कहने वाले उस सूत्र का व्याघात नहीं होता है तथा श्रुतज्ञान और प्रत्यभिज्ञान आदि परोक्ष हैं। इस प्रकार यह भी सूत्र से विरुद्ध नहीं है, क्योंकि आगे "आद्ये परोक्षम्"इस सूत्र से उनके परोक्षपने का प्रतिपादन किया गया है। अर्थात् प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो ज्ञानों में सभी ज्ञान गर्भित हो जाते हैं। अवग्रहा ईहा, अवाय, धारणा और स्मृति को भी परोक्षपना कहा गया है अत: केवल श्रुत और प्रत्यभिज्ञान आदि के परोक्षपना कहने ही से उस सूत्र का विरोध आता है, ऐसा नहीं कहना, क्योंकि, प्रत्यभिज्ञादि-इस शब्द में षष्ठी तत्पुरुष और बहुब्रीहि समास इन दो वृत्तियों से सभी परोक्ष प्रमाणों का संग्रह हो जाता है। शंका : सर्वसंग्रह कैसे हो जाता है ? __समाधान : जो ज्ञान प्रत्यभिज्ञान के आदि (पूर्ववर्ती) है, वे प्रत्यभिज्ञादि हैं। इस प्रकार षष्ठी तत्पुरुष समास से अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, स्मृतिपर्यन्त ज्ञानों का संग्रह हो जाता है, क्योंकि अवग्रह आदि के भी प्रधानता से परोक्षपन का कथन किया गया है और जिसके आदि में प्रत्यभिज्ञा है, ऐसी बहुब्रीहि नामक समासवृत्ति से चिन्ता, अभिनिबोध पर्यन्त ज्ञानों का संग्रह हो जाता है अत: कोई भी परोक्ष प्रमाण असंग्रहीत नहीं है अतः प्रत्यभिज्ञादि इस प्रकार वार्त्तिक में कहना युक्तिपूर्ण है क्योंकि व्यवहार और मुख्यरूप से स्वयं को अभीष्ट परोक्ष व्यक्तियों के समुदाय का निर्णय करा दिया गया है। अवग्रह आदि मुख्य रूप से परोक्ष हैं व्यवहार से प्रत्यक्ष भी हैं। अन्यथा सभी परोक्षों का संग्रह करना यदि इष्ट नहीं है और अवग्रह आदि की परोक्ष में गणना नहीं चाहते होते तो स्मरण आदि तो परोक्ष हैं और अवधि आदि प्रत्यक्ष हैं, इस प्रकार प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रमाण हैं-ऐसा यह स्पष्ट कथन किया गया है अतः शब्द और अर्थ सम्बन्धी न्याय का आश्रय लेने से कोई भी दोष यहाँ उपलब्ध नहीं है। (अतः स्वकीय प्रभेदों से युक्त प्रत्यक्ष और अपने भेद-प्रभेदों से युक्त परोक्ष ये दो मुख्य प्रमाण हैं। शेष प्रमाणज्ञान इन्हीं दो के परिवार हैं)। सूत्रकार स्वयं इन पाँच ज्ञानों को इष्ट भेदों में विभक्त करने के लिए सूत्र कहते हैं - आदि में होने वाले या सूत्र में पहले उच्चारण किये गये मतिज्ञान और श्रुतज्ञान-ये दो परोक्ष प्रमाण हैं॥११॥