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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 103 प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं त्रिधा श्रुतमविष्णुतम्। परोक्षं प्रत्यभिज्ञादी प्रमाणे इति संग्रहः॥१८०॥ त्रिधा प्रत्यक्षमित्येतत्सूत्रव्याहतमीक्ष्यते। प्रत्यक्षातींद्रियत्वस्य नियमादित्यपेशलम् // 181 // अत्यक्षस्य स्वसंवित्तिः प्रत्यक्षस्याविरोधतः। वैशद्यांशस्य सद्भावात् व्यवहारप्रसिद्धितः // 182 // प्रत्यक्षमेकमेवोक्तं मुख्यं पूर्णेतरात्मकम् / अक्षमात्मानमाश्रित्य वर्तमानमतींद्रियम् // 183 // परासहतयाख्यातं परोक्षं तु मतिश्रुतम् / शब्दार्थश्रयणादेवं न दोषः कश्चिदीक्ष्यते // 184 // ___प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं विधेति ब्रुवाणेनापि मुख्यमतींद्रियं पूर्णं केवलमपूर्णमवधिज्ञानं मन:पर्ययज्ञानं चेति निवेदितमेव, तस्याक्षमात्मानमाश्रित्य वर्तमानत्वात्। व्यवहारतः पुनरिंद्रियप्रत्यक्षमनिंद्रियप्रत्यक्षमिति वैशद्यांशसद्भावात्। ततो न तस्य सूत्रव्याहतिः। श्रुतं प्रत्यभिज्ञादि च परोक्षमित्येतदपि न सूत्रविरुद्धं, आद्ये श्री अकलंक देव का यह अभिप्राय है कि विशदज्ञान प्रत्यक्ष है। वह अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान के भेद से तीन प्रकार का है तथा अनेक बाधाओं के विप्लव से रहित श्रुतज्ञान, प्रत्यभिज्ञान तर्क आदि परोक्ष प्रमाण हैं। इस प्रकार प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रमाणों में सभी प्रमाणों का संग्रह हो जाता है॥१८०॥ कोई कहता है कि जैन ग्रन्थों में जो तीन प्रकार का प्रत्यक्ष ज्ञान माना गया है, वह तो सूत्र से व्याघातयुक्त दिख रहा है क्योंकि अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान इन तीन अतीन्द्रिय प्रत्यक्षों का ही आपने नियम किया है। आचार्य कहते हैं कि यह कथन प्रशंसनीय नहीं है, क्योंकि इन्द्रियों से अतिक्रान्त प्रत्यक्ष का स्वसंवेदन हो रहा है। इसमें कोई विरोध नहीं है। तथा एकदेश से विशदपना इन्द्रिय प्रत्यक्षों में भी विद्यमान है, अतः, व्यवहार की प्रसिद्धि से अवग्रह आदि भी प्रत्यक्षरूप हैं। अर्थात्-यद्यपि मुख्यरूप से तो अवधि आदि तीन ही प्रत्यक्ष हैं, परन्तु विशदपना होने से इन्द्रिय प्रत्यक्ष को भी परीक्षामुख आदि * न्याय के अन्य ग्रन्थों में सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष माना है वस्तुत: वे परोक्ष हैं // 181-182 // ... पूर्ण प्रत्यक्ष केवलज्ञान तथा अपरिपूर्ण प्रत्यक्ष अवधि और मनःपर्यय स्वरूप ये सब एक ही मुख्य प्रत्यक्ष प्रमाण कहे गये हैं, क्योंकि अक्ष यानी आत्मा को ही आश्रय लेकर के उत्पन्न होते हैं अत: इन्द्रियों से अतिक्रान्त अवधि आदि तीन ज्ञान तो इन्द्रिय, आलोक, हेतु, शब्द आदि की सहकारिता से नहीं होते हैं अत: वे मुख्य प्रत्यक्ष कहे गये हैं तथा मति और श्रुत इन्द्रियादि की सहायता से होते हैं अतः वे परोक्ष माने गये हैं। इस प्रकार शब्द सम्बन्धी न्याय और अर्थ सम्बन्धी न्याय का आश्रय लेने से कोई भी दोष दृष्टिगोचर नहीं होता है॥१८३-१८४॥ ___ विशद ज्ञान प्रत्यक्ष है, वह तीन प्रकार का है, इस प्रकार कहने वाले स्याद्वादी के मुख्य रूप से अतीन्द्रिय और पूर्ण विषयों को जानने वाला केवलज्ञान प्रत्यक्ष है तथा अपूर्ण विषयों को जानने वाला अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान भी विकल अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष है, ऐसा निवेदन कर दिया है क्योंकि ये तीनों * प्रत्यक्ष ज्ञान आत्मा का आश्रय लेकर उत्पन्न होते हैं। व्यवहार से फिर पाँच इन्द्रियों से उत्पन्न हुए प्रत्यक्ष और मन से उत्पन्न हुए प्रत्यक्ष भी हैं, क्योंकि एकदेश से विशदपना उनमें भी विद्यमान है अतः द्विवचनान्त
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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