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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 99 क्षीणोपशांतावरणस्य क्षीणावरणस्य चात्मनोऽक्षशब्दवाच्यत्वादनुमानं लिंगापेक्षं शब्दापेक्षं श्रुतमिति प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि व्यवतिष्ठते अक्षादिसामग्रीभेदादिति तेषां स्मृतिसंज्ञाचिंतानां प्रत्यक्षत्वप्रसंग: क्षीणोपशांतावरणात्मलक्षणमक्षमाश्रित्योत्पत्तिलिंगशब्दानपेक्षत्वाच्च / प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं योगीतरजनेषु चेत् / स्मरणादेरवैशद्यादप्रत्यक्षत्वमागतम्॥१७६॥ विशदं ज्ञानं प्रत्यक्षमिति वचने स्मृत्यादेरप्रत्यक्षत्वमित्यायातं। तथा च प्रमाणांतरत्वं लैंगिके शाब्दे वानंतर्भावादप्रमाणत्वानुपपत्तेः / कथम्लिंगशब्दानपेक्षत्वादनुमागमता च न। संवादानाप्रमाणत्वमिति संख्या प्रतिष्ठिता // 177 // श्रुतज्ञान इस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ये तीन प्रमाण व्यवस्थित हो जाते हैं, क्योंकि इनमें अक्ष, लिंग आदि सामग्री भिन्न-भिन्न है। ऐसा कहने वालों के सिद्धान्त में स्मरण, प्रत्यभिज्ञान और व्याप्तिज्ञान को भी प्रत्यक्षपने का प्रसंग आएगा, क्योंकि मतिज्ञानावरण कर्मों के क्षयोपशमस्वरूप आत्मा नाम के अक्ष को लेकर इनकी उत्पत्ति होती है। लिंग तथा शब्द की अपेक्षा न होने से अनुमान और श्रुतज्ञान में स्मृति आदि गर्भित नहीं हो सकते। सर्वज्ञ के प्रत्यक्षों में और अन्य संसारी जीवों के प्रत्यक्षों में विशद प्रत्यक्ष ज्ञान घटित हो जाता है, तब तो स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदि को अविशद होने के कारण अप्रत्यक्षपना स्वयमेव घटित हो जाता है॥१७६॥ विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष कहने पर स्मृति आदिक ज्ञानों को प्रत्यक्षरहित पना प्राप्त होता है और इस प्रकार होने पर स्मृति आदिक को प्रत्यक्ष से भिन्न प्रमाणपना सिद्ध ही है। . हेतु से उत्पन्न हुए अनुमान प्रमाण में अथवा शब्दजन्य आगम ज्ञान में स्मृति आदिकों का अन्तर्भाव नहीं होता है तथा स्मृति ज्ञान अप्रमाण भी नहीं है अत: वैशेषिक या बौद्धों तथा कापिलों को स्मृति आदिक भिन्न परोक्ष प्रमाण मानने पड़ेंगे। वे स्मृति आदिक अनुमान, आगमरूप कैसे नहीं हैं? या अप्रमाण भी क्यों नहीं हैं? ऐसी जिज्ञासा होने पर उत्तर दिया गया है स्मरण आदि को लिंग की अपेक्षा नहीं होने के कारण अनुमानपना नहीं है, शब्द की संकेतस्मरण द्वारा सहकारिता नहीं होने से आगमप्रमाणपना भी नहीं है तथा सफल प्रवृत्ति को करने वाले संवादीज्ञान होने के कारण स्मरण आदि अप्रमाण भी नहीं हैं अतः प्रमाणों की संख्या प्रतिष्ठित होती है, अथवा स्मृति, चिन्ता, संज्ञा आदि को पृथक् प्रमाण मानकर गिनने से प्रमाणों की संख्या प्रतिष्ठित हो जाती है॥१७७॥ जिस प्रकार स्मरण आदि को अविशद होने से प्रत्यक्षपना नहीं है, उसी प्रकार लिंग और शब्द सामग्री का सहकृतपना न होने से अनुमान और आगमपन भी नहीं है। साथ ही में सम्वादक होने के कारण अप्रमाणपना भी नहीं है अतः स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क को तीन प्रमाणों से अतिरिक्त चौथा आदि प्रमाणपना सुलभतापूर्वक प्राप्त हो जाता है अत: तीन ही प्रमाण ज्ञान हैं। यह संख्या प्रतिष्ठित हो सकती है , अर्थात् उपहास पूर्वक व्यंग्य करके प्रमाण की तीन संख्या का सिद्ध न होना कह दिया है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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