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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 100 यथा हि स्मरणादेरविसंवादत्वान्न प्रत्यक्षत्वं तथा लिंगशब्दानपेक्षत्वान्नानुमानागमत्वं संवादकत्वानाप्रमाणत्वमिति प्रमाणांतरतोपपत्तेः सुप्रतिष्ठिता संख्या त्रीण्येव प्रमाणानीति॥ एतेनैव चतुः पंचषट्प्रमाणाभिधायिनां। स्वेष्टसंख्याक्षतिज्ञेया स्मृत्यादेस्तद्विभेदतः // 178 // येप्यभिदधते प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि चत्वार्येवेति सहार्थापत्त्या पंचैवेति वा सहाभावेन षडेवेति वा, तेषामपि स्वेष्टसंख्याक्षति: प्रमाणत्रयवादीष्टसंख्यानिराकरणेनैव प्रत्येतव्या। स्मृत्यादीनां ततो विशेषापेक्षयार्थांतरत्वसिद्धेः। न ह्युपमानेपत्त्यामभावे वा स्मृत्यादयोंतर्भावयितुं शक्या: सादृश्यादिसामायनपेक्षत्वात् उपमानार्थापत्तिरूपत्वेनवस्थाप्रसंगात्। अभावरूपत्वे सदंशे प्रवर्तकत्वविरोधात्। . इस कथन से (स्मृति आदि का भिन्न प्रमाणपना सिद्ध हो जाने से) और स्वीकृत प्रमाणों में अन्तर्भाव न होने से ही चार, पाँच, छह, सात, आठ प्रमाणों को कहने वाले वादियों की मानी हुई अपनी अभीष्ट संख्या की क्षति हो गयी है, ऐसा समझ लेना चाहिए क्योंकि स्मृति आदि उन माने हुए नियत प्रमाणों से विभिन्न सिद्ध होते हैं॥१७८॥ ___जो भी नैयायिक आदि कहते हैं कि प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द-ये चार ही प्रमाण हैं।' अथवा अर्थापत्ति के मिलाने पर पाँच ही प्रमाण हैं और अभाव को मिलाने से छह ही प्रमाण हैं। आचार्य कहते हैं कि उन सबकी भी अपने अभीष्ट संख्या की क्षति इस तीन प्रमाण (प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम) को मानने वाले वादी की इष्ट संख्या के निराकरण कर देने से ही समझ लेना चाहिए, क्योंकि स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्कों को विशिष्ट अर्थों के ग्रहण करने की अपेक्षा से उन प्रमाणों से भिन्न प्रमाणपना सिद्ध है। नैयायिक आदि के द्वारा माने गए उपमान प्रमाण या अर्थापत्ति अथवा अभाव में तो स्मृति आदि का अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता है, क्योंकि उपमान की सामग्री सादृश्य और अर्थापत्ति की सामग्री अनन्यथाभवन तथा अभाव की सामग्री आधार “वस्तुग्रहण" मनइन्द्रिय, प्रतियोगिस्मरण आदि हैं। उनकी अपेक्षा तो स्मरण आदि ज्ञानों में नहीं है। स्मरण आदि को उपमान या अर्थापत्तिरूप मानने पर अनवस्था दोष का भी प्रसंग आता है। स्मरण आदि को अभाव प्रमाणरूप मानने पर भाव अंश में प्रवर्तकपने का विरोध आता है, (क्योंकि मीमांसकों के यहाँ असत् अंश को जानने के कारण अभाव प्रमाण को निवृत्ति करने वाला माना है) जहाँ पाँच प्रमाण की प्रवृत्ति नहीं होती है, वहाँ अभाव प्रमाण माना गया है। सदृशपन की स्मृति और प्रत्यभिज्ञान, तर्क आदि को यदि नैयायिक उपमानस्वरूप मानेंगे तब तो उस उपमान के उत्पन्न करने वाले सादृश्य आदि को जानने के लिए पुनः स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि होने चाहिए अन्यथा (यानी ज्ञात हुए बिना) उस सादृश्य आदि को उस उपमान प्रमाण के उत्थान कराने की सामर्थ्य की असम्भवता है। यदि स्मृति आदि 1. नैयायिक प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम ये चार प्रमाण मानते हैं। प्रभाकर, मीमांसक अर्थापत्ति अधिक मानता है और जैमिनी अभाव के साथ छह प्रमाण मानते हैं। चार्वाक प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है और बौद्ध प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणों को मानते हैं।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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