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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 98 तदुपपत्तेः / तथाहि / योगिज्ञानं करणक्रमातिवर्ति साक्षात्सर्वार्थज्ञानवत्वात् यन्नैवं तन्न तथा यथास्मदादिज्ञानमिति युक्तमुत्पश्यामः / अत एव करणाद्विना ज्ञानमिति दृष्टपरिकल्पनं प्रक्षीणकरणावरणस्य सर्वार्थपरिच्छित्तिः स्वात्मन एव करणत्वोपपत्तेश्च भास्करवत्। न हि भानोः सकलजगन्मंडलप्रकाशनेतिरं करणमस्ति / प्रकाशस्तस्य तत्र करणमिति चेत् , स ततो नार्थांतरं। नि:प्रकाशत्वापत्तेरनतिरमिति चेत् , सिद्धं स्वात्मनः करणत्वं समर्थित च कर्तुरनन्यदविभक्तकर्तृकं करणमग्नेरौष्ण्यादिवदिति नार्थांतरकरणपूर्वकं योगिज्ञानं / नाप्यकरणं येन तदिद्रियजमदृष्टं वा कल्पितं संभवेत् / ये त्वाहुः, इंद्रियानिद्रियप्रत्यक्षमतींद्रियप्रत्यक्षं चाक्षाश्रितं सम्पूर्ण अर्थों का ज्ञान होना बन जाता है। उसी को स्पष्ट कर अनुमान द्वारा कहते हैं) योगी का ज्ञान इन्द्रियों के क्रम का उल्लंघन करता है साक्षात् सम्पूर्ण अर्थों को जानने वाला ज्ञान होने से। जो ज्ञान क्रमवर्ती इन्द्रियों के उपक्रम का उल्लंघन नहीं करता है, वह ज्ञान सम्पूर्ण अर्थों को जानने वाला नहीं है, जैसे कि हम सभी अल्पज्ञ जीवों का ज्ञान / इस सिद्धान्त को हम युक्तिपूर्ण (यथार्थ) देख रहे हैं। अतएव करण के बिना भी ज्ञान हो जाता है, यह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष में देखे हुए तत्त्व की ही कल्पना है। जिस आत्मा के करणज्ञान को रोकने वाले ज्ञान के आवरणों का प्रकृष्ट रूप से क्षय हो गया है, उसको संनिकर्ष के बिना भी सम्पूर्ण अर्थों की परिच्छित्ति (ज्ञान) हो जाती है। अथवा अर्थों की परिच्छित्ति करने में स्वकीय आत्मा को ही करणपना है, जैसे कि सम्पूर्ण अर्थों के प्रकाशित करने में स्वयं सूर्य ही करण है। सर्वथा स्वाधीन केवलज्ञानरूप करण को आवरण करने वाले ज्ञानावरण पटल का नाश होने पर सर्व पदार्थों की परिच्छित्ति करने में आत्मा को अपने से पृथक् करणों की आवश्यकता नहीं है। जैसे-सूर्य को सम्पूर्ण जगत् मण्डल को प्रकाशित करने में कोई दूसरा भिन्न पदार्थ करण आकांक्षणीय नहीं है, यदि सूर्य को उस मण्डल को प्रकाशित करने में प्रकाश को करण माना जायेगा तो वह प्रकाश उस सूर्य से भिन्न अर्थान्तर नहीं है अन्यथा सूर्य को स्वयं प्रकाश रहितपने का प्रसंग आयेगा। यदि सूर्य से प्रकाश अभिन्न है तो स्वयं अपने को करणपना सिद्ध हो जाता है। पूर्व प्रकरणों में आत्मा का ही करणत्व रूप से समर्थन कर चुके हैं। जैसे अग्नि की उष्णता, ऊर्ध्वगमनस्वभाव आदिक करण उस कर्तारूप अग्नि से अभिन्न हैं अतः सर्वथा अपने से भिन्न करण को कारण मानकर योगी का ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है और योगी का ज्ञान करण के बिना ही उत्पन्न हो जाय, यह भी नहीं है, जिससे कि वह इन्द्रियजन्य माना जाय या पूर्व उक्त अदृष्ट की कल्पना संभव हो सके। भावार्थ : कर्ता से अभिन्न करणवाले केवलज्ञान द्वारा इन्द्रिय, संनिकर्ष आदि के बिना ही सम्पूर्ण अर्थों का ज्ञान हो जाता है। जो वादी ऐसा कहते हैं कि इन्द्रिय प्रत्यक्ष, मानस प्रत्यक्ष तथा योगियों का अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ये सभी प्रत्यक्ष ज्ञान अक्ष का आश्रय लेकर उत्पन्न होते हैं, क्योंकि ज्ञानावरण के क्षयोपशम और क्षय वाले आत्मा को अक्ष शब्द का वाच्य अर्थपना है। यहाँ अक्ष का अर्थ आत्मा लिया गया है अत: अक्ष की अपेक्षा रखने वाला प्रत्यक्ष और लिंग की अपेक्षा रखने वाला अनुमान और शब्दसामग्री की अपेक्षा रखने वाला
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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