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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 97 चेत् , कुतः पुनस्तेन मनसोऽनुग्रहः? सकृत्सर्वार्थसन्निकर्षकरणमिति चेत् तद्वदसौ योगजो धर्मः स्वयं सकृत्सर्वार्थज्ञानं परिस्फुटं किं न कुर्वीत परंपरापरिहारश्चैवं स्यान्नान्यथा योगजधर्मात् मनसोनुग्रहस्ततोऽशेषार्थज्ञानमिति परंपराया निष्प्रयोजनत्वात्। करणाद्विना ज्ञानमित्यदृष्टकल्पनत्यागः प्रयोजनमिति चेत् / नन्वेवं सकृत्सर्वार्थसन्निकर्षो मनस इत्यदृष्ट कल्पनं तदवस्थानं, सकृत्सर्वार्थज्ञानान्यथानुपपत्तेस्तस्य सिद्धेर्नादृष्टकल्पनेति चेत् न, अन्यथापि तत्सिद्धेः आत्मार्थसन्निकर्षमात्रादेव है। इन्द्रियों के साथ सम्पूर्ण अर्थों का अव्यवहित रूप से अथवा परम्परा से भी युगपत् सन्निकर्ष नहीं हो सकता और इन्द्रियों से संनिकृष्ट नहीं हुए अर्थों में इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षज्ञान होना सम्भव नहीं है। यदि नैयायिक या सांख्य कहें कि सयोगकेवली के चित्त की वृत्तियों को रोककर एक अर्थ में शुभध्यानरूप योग से उत्पन्न हुए धर्म से अनुग्रह को प्राप्त मन इन्द्रिय से सम्पूर्ण अर्थों का ज्ञान होना सिद्ध होता है अत: कोई दोष नहीं है, तो उस समाधिजन्य धर्म से मन का अनुग्रह कैसे होता है? यदि कहो कि एक ही बार में संपूर्ण अर्थों के साथ मन का संनिकर्ष कर देना ही धर्म का मन के ऊपर उपकार है, तब तो सम्पूर्ण अर्थों के साथ मन का संनिकर्ष कर देने के समान वह योगज धर्म युगपत् स्वयं अतीव विशद सम्पूर्ण अर्थों के ज्ञान को ही सीधा क्यों नहीं कर लेता है ? इस प्रकार करने से बीच में परम्परा लेने का परिहार भी हो जाता है। अन्यथा परम्परा का निवारण नहीं हो सकता है। योगज धर्म से मन के ऊपर अनुग्रह पहले किया जाए और पीछे उससे सम्पूर्ण अर्थों का ज्ञान किया जाए, इस परम्परा को मानना निष्प्रयोजन है। सांख्य या वैशेषिकों ने प्रत्यक्षज्ञान का करण संनिकर्ष माना है अत: सांख्य कहता है कि करण के बिना ज्ञान हो जाए, ऐसा देखा नहीं गया है अत: केवलज्ञानी के प्रत्यक्ष करने में अशेष अर्थों के साथ संनिकर्ष मानने का यह प्रयोजन है कि करण बिना ज्ञान हो गया, ऐसी अदृष्ट कल्पना को त्याग दिया जाय। इसके उत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार एक ही बार में सम्पूर्ण अर्थों के साथ मन का संनिकर्ष होना यह अद्यपि देखते नहीं गये अर्थ की कल्पना करना तो वैसी की वैसी अवस्थित है। अर्थात्-अणु मन के साथ संपूर्ण अर्थों का संनिकर्ष होना यह अदृष्ट अर्थ की कल्पना है, क्योंकि सनिकर्ष के बिना तो असंख्य पदार्थों की चक्षु मन और तर्क से ज्ञप्तियाँ हो रही है। एक ही समय में सम्पूर्ण अर्थों का ज्ञान मन के साथ सम्पूर्ण अर्थों का संनिकर्ष हुए बिना नहीं बन सकता है, अत: उस सर्व अर्थ के संनिकर्ष की सिद्धि हो रही है। यह अदृष्ट की कल्पना नहीं है, ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि अन्य प्रकारों से भी एक ही बार सम्पूर्ण अर्थों का ज्ञान हो जाने की सिद्धि हो जाती है। अर्थात्-नैयायिकों के मतानुसार त्रिलोक त्रिकालवर्ती, व्यापक, नित्य आत्मा के साथ अर्थ का संनिकर्ष मात्र हो जाने से ही उन सम्पूर्ण अर्थों का ज्ञान हो जाने की उपपत्ति है। अथवा जैन मतानुसार आत्मा, मन, इन्द्रिय और अर्थ का संनिकर्ष हुए बिना भी केवल आत्मा से ज्ञानावरण का क्षय हो जाने पर
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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