________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 86 शुक्लशब्दस्तथाविधेशुक्लत्वे प्रवर्तमानो न गुणशब्दः। चरतिशब्दश्चरणसामान्ये प्रवृत्तो न क्रियाशब्दः, विषाणीति शब्दोपि विषाणित्वसामान्ये वृत्तिमात्रसमवायिद्रव्यशब्दः, दंडीति शब्दश्च दंडित्वसामान्ये वृत्तिमुपगच्छन्न संयोगिद्रव्यशब्द:, डित्थशब्दोपि बालकुमारयुवमध्यस्थविरडित्थावस्थासु प्रतीयमाने डित्थत्वसामान्ये प्रवर्तमानो न यदृच्छाशब्दः / कथं जातिशब्दो जातिविषय: स्याज्जातौ जात्यंतरस्याभावादन्यथानवस्थानुषंगादिति च न चोद्यं, जातिष्वपि जात्यंतरस्योपगमाजातीनामानंत्यात् / यथाकांक्षाक्षयं व्यवहारपरिसमाप्तेरनवस्थानासंभवात्। व्यवहार होता हुआ देखा जाता है क्योंकि जैसे गौ यह शब्द तो गौ है, गौ है, ऐसे वैसे के वैसे ही पीछे वर्तने वाले ज्ञानों के विषय होने वाले गोत्व जाति में प्रवर्तता है अत: उसको जाति कहते हैं, वैसे ही गुणशब्द के द्वारा माना गया शुक्लशब्द भी उसी प्रकार की शुक्लत्व जाति में प्रवर्तता है अतः शुक्ल गुण में भी जाति रहती है। एक शुक्ल को देखकर अनेक शुक्ल वर्णों का ज्ञान हो जाता है अत: शुक्ल शब्द को भी जाति शब्द मानना चाहिए, गुणशब्द नहीं तथा गमन करना, भक्षण करना रूप क्रिया को कहने वाला चरति शब्द भी चरनारूप सामान्य में प्रवृत्त होता है। क्रिया में भी सामान्य (जाति) रहती है अत: चरति, गच्छति आदि क्रिया शब्द भी जाति शब्द हैं स्वतन्त्र क्रियाशब्द नहीं हैं। विषाणी शब्द भी विषाणत्व जाति में रहता है, अत: जाति शब्द है,समवाय वाले द्रव्य को कहने वाला समवायी द्रव्य शब्द नहीं है और दण्डी यह शब्द भी दण्डित्व रूप जाति में वृत्ति को प्राप्त हो रहा है अत: जाति शब्द है, संयोगी द्रव्य या शब्द नहीं है इस प्रकार किसी एक मनुष्य को कहने वाला डित्थ शब्द भी उस डित्थ जीव की बालक, कुमार, युवा, मध्य आदि अवस्था में व्यवहार किया गया प्रतीत होता है अत: डित्थत्व जाति में प्रवृत्ति करता हुआ डित्थ शब्द भी जातिशब्द है, एक व्यक्ति में रहने वाला धर्म जाति नहीं होता है किन्तु एक व्यक्ति की नाना अवस्थाओं में रहने वाला डित्थत्व धर्म जाति बन जाता है। अतः डित्थ शब्द इच्छा के अनुसार कल्पित किया गया यदृच्छाशब्द नहीं है किन्तु जाति शब्द है। जाति अन्तर का अभाव होने से जाति में जातिविषयक जाति शब्द कैसे हो सकता है ? अन्यथा अनवस्था दोष का प्रसंग आता है। इसके प्रत्युत्तर में मीमांसक कहते हैं कि ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए। ___क्योंकि जातियों में भी दूसरी अनेक जातियाँ स्वीकार की हैं। जातियाँ अनन्त हैं, परिमित नहीं। जिस पुरुष की जितनी दो चार बीस सौ पाँच सौ कोटि चलकर आकांक्षा का क्षय होते हुए तदनुसार व्यवहार की परिसमाप्ति हो जाती है। उससे आगे अनवस्था का होना सम्भव नहीं है अर्थात् किसी भी पुरुष का किसी भी अन्य पुरुष के लिए पिता, पितामह, प्रपितामह आदि का प्रश्न करने पर कुछ कोटि के पीछे आकांक्षा स्वतः शान्त हो ही जाती है। यदि आकांक्षा शान्त न होवे तो अनवस्था होने दो, कोई क्षति नहीं। कार्य कारणभाव का भंग नहीं होना चाहिए। ऐसे ही जातियों में भी समझ लेना / ज्ञापक पक्ष में कुछ दूर चल कर आकांक्षाओं का क्षय हो जाने से अनवस्था वहीं टूट जाती है।