________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 84 वस्तुविशेषा नोपाधिका यत्नोपनेयप्रत्ययत्वाभावात् स्वयं प्रतीयमानत्वादिति चेत् तत एव सामान्यमौपाधिक माभूत्। सामान्यविशेषयोर्वस्तुस्वभावत्वे सर्वत्रोभयप्रत्ययप्रसक्तिरिति चेत् किं पुनस्तयोरेकतरप्रत्यय एव क्वचिदस्ति। दर्शनकाले सामान्यप्रत्ययस्याभावाद्विशेषप्रत्यय एवास्तीति चेत् न, तदापि सद्र्व्यत्वादिसामान्यप्रत्ययस्य सद्भावादुभयप्रत्ययसिद्धेः। प्रथममेकां गां पश्यन्नपि हि सदादिना सादृश्यं तत्रार्थान्तरेण व्यवस्यत्येव अन्यथा तदभावप्रसंगात्। प्रथममवग्रहे सामान्यस्यैव प्रतिभासनान्नोभयप्रत्ययः सर्वत्रेति चायुक्तं, वर्णसंस्थानादिसमानपरिणामात्मनो वस्तुनोऽर्थांतराद्विसदृशपरिणामात्मनश्चावग्रहे प्रतिभासनात्। ___ बौद्ध कहते हैं कि वस्तु के विशेष वास्तविक हैं, औपाधिक नहीं हैं क्योंकि विशेषों को जानने के लिए प्रयत्न करने का अभाव है। वे वस्तु में स्वयं ही प्रतीत हो जाते हैं। आचार्य कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तब तो सामान्य को जानने के लिए भी प्रयत्न का अभाव होने से सामान्य भी औपाधिक नहीं होगा। यदि सामान्य और विशेष दोनों को वस्तु का स्वभाव मानोगे तब तो सर्व ही विषयों में सामान्य और विशेष दोनों के ज्ञान होने का प्रसंग आयेगा। फिर क्या उन दोनों में से एक ही का कहीं ज्ञान होना देखा गया है? भावार्थ : सभी स्थलों पर दोनों का ही एक साथ ज्ञान हो जाता है, अकेले-अकेले का नहीं अतः दोनों ही वस्तु के तदात्मक अंश हैं। स्वलक्षण को जानने वाले निर्विकल्पक प्रत्यक्षरूप दर्शन के समय में सामान्य को जानने वाले ज्ञान का अभाव है। अतः यहाँ केवल विशेष का ही ज्ञान होता है, ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि उस समय भी सत्, द्रव्य, पदार्थत्व आदि सामान्यों को जानने वाला ज्ञान विद्यमान है। अत: सामान्य और विशेष दोनों को जान लेना निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में भी सिद्ध हो जाता है। सबसे पहले एक गौ को देखने वाला पुरुष भी सत्पना द्रव्यपना पदार्थपना आदि धर्मों से दूसरे घट,अश्व आदि पदार्थों के साथ उसमें सादृश्य का निश्चय कर ही लेता है अन्यथा उस सदृशपने के अभाव का प्रसंग आता सबसे प्रथम हुए अवग्रह में वस्तु के सामान्य धर्मों का प्रतिभास होता है, विशेषों का नहीं अत: सभी ज्ञानों में सामान्य और विशेष इन दोनों की प्रतीति नहीं होती है ऐसा कहना भी अयुक्त है क्योंकि रूप, रस तथा आकृति, रचना आदि समान परिणाम स्वरूप वस्तु का और अन्य पदार्थों की अपेक्षा से प्राप्त हुए विसदृश परिणाम स्वरूप उसी वस्तु का अवग्रह में प्रतिभास होता है अर्थात् किसी भी ज्ञान में अकेले सामान्य का या केवल विशेष का प्रतिभास होता ही नहीं है। किसी ज्ञान में यदि सामान्य और विशेष दोनों की प्रतीति न होवे तो भी वस्तु के सामान्य और विशेष दोनों धर्मस्वरूप का विरोध नहीं है। प्रत्येक जीव में विशिष्ट क्षयोपशम की अपेक्षा भिन्न-भिन्न प्रकार के ज्ञानों की उत्पत्ति होती है। जैसी वस्तु होगी वैसा हूबहू ज्ञान उत्पन्न होगा तब तो चाहे जिस किसी को अनादि अनन्त वस्तु के ज्ञान होने का प्रसंग आयेगा। भावार्थ : अतीत, अनागत, अनन्त परिणमनों के अविष्वग्भाव संबंधरूप पिण्ड को वस्तु कहते हैं। किसी भी वस्तु को देखकर उसके अनादि अनन्तपर्यायों का ज्ञान हो जाना चाहिए। यदि जैसी वस्तु है ठीक वैसा ही उसका ज्ञान माना जावेगा तो बौद्धों को