________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 83 यत्नोपने यप्रत्ययत्वाघटनात् नीलादिवदिति। तदसत् / सामान्यस्य विशेषवत्प्रत्यक्षत्वेपि यत्नोपनीयमानप्रत्ययत्वाविरोधात् / प्रमाणसंप्लवस्यैकत्रार्थे व्यवस्थापनात् / सामान्यमेव परिच्छिद्यमानस्वरूपं न विशेषास्तेषां व्यावृत्तिप्रत्ययानुमेयत्वादिति वदतोपि निषेद्धुमशक्तेः / न हि वस्तुस्वरूपमेव व्यावर्तमानाकारप्रत्ययस्य निबंधनं अपि तु तत्संसर्गिणोर्थास्ते च भेदहेतवो यदा सकलास्तिरयंते तदा सद्वस्तु पदार्थ इति वा निरुपाधिसामान्यप्रत्ययः प्रसूते, यदा तु गुणकर्मभ्यां भेदहेतवो अतिरोभूताः शेषास्तिरोधीयते तदा द्रव्यमिति बुद्धिरेवमवांतरसामान्येष्वशेषेष्वपि बुद्धयः प्रवर्तते भेदहेतूनां पुनराविर्भूतानां वस्तुना संसर्गे तत्र विशेषप्रत्ययः / तथा च सामान्यमेव वस्तुस्वरूपं विशेषास्तूपाधिबलावलंबिन इति मतान्तरमुपतिष्ठेत। वाला हो जायेगा और वह व्यक्तियों से भिन्न दसरा पदार्थ तो नित्य जाति ही है। वह जातिरूप सामान्य पदार्थ प्रत्यक्ष प्रमाण से भी जाना जाता है। अन्यथा सामान्य का प्रत्यक्ष से ज्ञान नहीं माना जावेगा तो उस सामान्य को प्रयत्न के पीछे सामान्यलक्षणा प्रत्यासत्ति से किया जाना घटित नहीं होगा। जैसे नील पीत आदिक गुण पुरुषार्थ से प्रत्यक्ष जान लिये जाते हैं वैसे ही प्रयत्न करने पर सामान्य का ज्ञान हो जाता है। आचार्य कहते हैं ऐसा कहना भी सत्य नहीं है क्योंकि - - सदृशपरिणामरूप सामान्य को विशेष व्यक्ति के समान प्रत्यक्ष का विषय मान लेने पर प्रयत्न के द्वारा जान लेने में कोई विरोध नहीं है क्योंकि नैयायिक, जैन, मीमांसक ये सब प्रमाणसंप्लव को स्वीकार करते हैं, एक अर्थ में बहुत से अपूर्वार्थग्राही प्रमाणों की प्रवृत्ति होना प्रमाणसंप्लव कहलाता है। जैसे एक ही अग्नि आगम अनुमान और प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय होती है। तथा सामान्य ही जानने योग्य वस्तु का स्वरूप है विशेष कोई पदार्थ नहीं है अर्थात् काली गाय श्वेत गाय से पृथक् है, इत्यादि व्यावृत्ति को जानने वाले ज्ञान से विशेषों का अनुमान कर लिया जाता है अत: विशेष प्रत्यक्ष नहीं होते हैं अर्थात् विशेष प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय नहीं है ऐसा कहने वाले का भी तुम निषेध नहीं कर सकते। पृथक्भूत आकार का उल्लेख कराने वाले ज्ञान का कारण वस्तु का स्वरूप ही है अतः विशेष पदार्थ ही वस्तु का तदात्मक रूप है, सामान्य वस्तुभूत नहीं है ऐसा नहीं समझना क्योंकि उस वस्तु के स्वरूप से संबंध रखने वाले जो पदार्थ हैं वे सर्व पदार्थ भेद के (व्यावृत्ति के) कारण हैं जिस समय भेद के कारण संपूर्ण छिप जाते हैं तब सामान्य धर्मों की अपेक्षा से सत् है, वस्तु है, पदार्थ है, प्रमेय है। इस प्रकार का निर्विशेष सामान्य ज्ञान उत्पन्न होता है किन्तु जिस समय गुण और क्रिया से भेद के कारण प्रगट हो जाते हैं तथा शेष शुद्ध व्यापक सामान्य छिप जाते हैं तब द्रव्य है, जीव है, इस प्रकार की उपाधिसहित बुद्धि ही उत्पन्न होती है। इसके मध्यवर्ती सम्पूर्ण सामान्यों में भी वैसी विपरीत बुद्धियाँ प्रवर्तती रहती हैं। पुनः प्रगट हुए भेद के कारणों का वस्तु के साथ संबंध हो जाने पर वहाँ विशेष ज्ञान हो जाता है अतः सिद्ध होता है कि सामान्य ही वस्तु का स्वरूप है और विशेष तो विशेषणों के सामर्थ्य का अवलम्ब रखते हुए औपाधिक भाव है वास्तविक नहीं इस प्रकार का एक भिन्नमत सिद्धान्त उपस्थित हो जायेगा।