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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 82 तत्साध्यस्य कार्यस्य तदधिकरणेन साधयितुमशक्तेः / पुरुष दंडीतिप्रत्ययवदंडसंबंधेन साध्यस्य तदधिकरणेन पुरुषमात्रेण वा साधयितुमशक्यत्वात् / दंडोपादित्सया दंडीतिप्रत्यय: साध्यते इति चायुक्तं, ततो दंडोपादित्सावानिति प्रत्ययस्य प्रसूतेः। अन्यथा स्यापीच्छाकारणैः संस्तवोपकारगुणदर्शनादिभिः साध्यत्वप्रसंगात् / ततः सर्वस्य स्वानुरूपप्रत्ययविषयत्वं वस्तुनोभिप्रेयता समानपरिणामस्यैव समानप्रत्ययविषयत्वमभिप्रेतव्यं / एकत्वस्वभावस्य सामान्यस्यैकत्वप्रत्ययविषयत्वप्रसंगात् / स एवायं गौरित्येकत्वप्रत्यय एवेति चेत् न, तस्योपचरितत्वात्। स इव स इति तत्समाने तदेकत्वोपचारात् स गौरयमपि गौरिति समानप्रत्ययस्य सकलजनसाक्षिकस्यास्खलद्रूपतयानुपचरितत्वसिद्धेः। कश्चिदाह। दंडीत्यादिप्रत्ययः परिच्छिद्यमानदंडसंबंधादिविषयतया नार्थांतरविषयः कल्पयितुं शक्यः समानप्रत्ययस्तु परिच्छिद्यमानव्यक्तिविषयत्वाभावादर्थांतरविषयस्तच्चार्थांतरं सामान्यं प्रत्यक्षतः परिच्छेद्यमन्यथा तस्य ___ दण्ड वाला ऐसा ज्ञान तो दण्ड के ग्रहण करने को इच्छा से भी सिद्ध हो सकता है ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि दण्ड के ग्रहण करने की इच्छा से 'दण्ड ग्रहण की इच्छा वाला है' उस प्रकार के ज्ञान की उत्पत्ति होती है, ‘दण्डवान है' इस प्रकार का ज्ञान नहीं होता है। अन्यथा (यदि दण्ड के संयोग से दण्डवाला न कहकर दण्ड के ग्रहण करने की इच्छा से दण्ड वाला कहेंगे तो) 'दण्ड ग्रहण की इच्छा वाला है' इस ज्ञान को भी इच्छा के कारण माने गए स्तुति करना, उपकार दिखाना, गुणदर्शन कराना आदि से भी साध्यपने का प्रसंग आयेगा अर्थात् ज्ञान का अवलम्ब कारण पदार्थ है इच्छा नहीं। यदि इच्छा को उस पदार्थ का ज्ञान मानेंगे तो दण्ड इच्छा के ज्ञान में इच्छा के निमित्त कारण स्तुति, उपकार, गुणदर्शन आदि भी उसके कारण बन जायेंगे अत: सर्व पदार्थों को अपने-अपने अनुकूल ज्ञान का विषयत्व करने के लिए वस्तु के सदृश परिणामों को ही समान इस ज्ञान का विषयपना मान लेना चाहिए। यदि समान सामान्य का एकत्व स्वभाव माना जायेगा तो एकपने के ज्ञान की विषयता का प्रसंग आएगा अर्थात् एकपने का ज्ञान तो हो जायेगा परन्तु "यह खण्ड गौ इस मुण्ड गौ के समान है" ऐसे सदृश परिणामों का विषय करने वाला ज्ञान नहीं होगा। ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि अनेक गौओं में “यह वही गौ हैं" इस प्रकार एकत्व को विषय करने वाला यह ज्ञान उपचरित है। वस्तुत: चितकबरी गौ को देखकर धौली गौ को देखने वाले पुरुष को उसके समान यह गौ है' ऐसा ज्ञान होना चाहिए किन्तु यह भी गौ है और वह भी गौ थी, इस प्रकार गोत्वधर्मसे एकत्व का उपचार (आरोप) कर लिया जाता है। यदि परमार्थरूप से विचारा जावे तो वह बैल था। यह भी वृषभ बैल है। इस प्रकार सदृशपने को विषय करने वाला ज्ञान सम्पूर्ण मनुष्यों के सम्मुख बाधारहित स्वरूप से अनुपचरित रूप से सिद्ध होता है अर्थात् प्रत्युत् सदृश परिणाम है, यह बात सिद्ध होती है। कोई कह रहा है कि दण्डवान, छत्रवान् इत्यादि ज्ञान तो परिमित दण्ड का संबंध नियत पदार्थों को विषय करता है अत: दण्ड छत्र आदिक से दूसरे अन्य अर्थों को विषय नहीं कर पाते हैं। जो परिमित पदार्थों को जानता है उस ज्ञान को विषय से अन्य व्यापक रूप अर्थ कल्पित नहीं किया जा सकता है। किन्तु यह इसके समान है ऐसा ज्ञान तो व्यापक वस्तु को विषय करता है अत: व्यक्ति से भिन्न किसी दूसरे अर्थ को विषय करने
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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