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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 81 संनिवेशविशेषस्तत्प्रत्ययविषयो व्यपदिश्यत इति चेत् , स कथं परिमितास्वेव व्यक्तिषु न पुनरन्यासु स्यात्। स्वहेतुवशादिति चेत् स एव हेतुस्तत्प्रत्ययविषयोस्तु किं संनिवेशेन, सोपि हेतुः कुतः परिमितास्वेव व्यक्तिषु स्यादिति समानः पर्यनुयोगः / स्वहेतोरिति चेत् सोपि कुत इत्यनिष्टानां / पर्यंते नित्यो हेतुरुपेयते अनवस्थानपरिहरणसमर्थ इति चेत् प्रथमत एव सोभ्युपेयतां संनिवेशविशेषप्रसवाय / सोपि कुतः परिमितास्वेव व्यक्तिषु संनिवेशविशेष प्रसूते न पुनरन्यास्विति वाच्यं / स्वभावात्तादृशात्सामर्थ्याद्वा व्यपदेश्यादिति चेत् तर्हि तेन वाग्गोचरातीतेन स्वभावेन सामर्थ्येन वा वचनमार्गावतारिवस्तुनिबंधना लोकयात्रा प्रवर्तत इति / समभ्यधायि भर्तृहरिणा। “स्वभावो व्यपदेश्यो वा सामर्थ्यं वावतिष्ठते / सर्वस्यांते यतस्तस्माद्व्यवहारो न कल्पते' इति / तस्माद्वाग्गोचरवस्तुनिबन्धनं लोकव्यवहारमनुरुध्यमानैर्व्यपदेश्यैवजाति:सदृशपरिणामलक्षणा स्फुटमेषितव्या। हैं कि वह अपना हेतु ही सदृश ज्ञान का विषय होगा, सन्निवेश (आकार) के मानने का क्या प्रयोजन है अर्थात् स्वहेतु ही सदृश को जानता है ऐसा कहना चाहिए, सन्निवेश को कारण मानना व्यर्थ है। तथा इसमें भी जिज्ञासा बनी रहती है कि रचना विशेष का कारण वह स्वहेतु भी परिमित व्यक्तियों में क्यों रहता है, अन्य व्यक्तियों में क्यों नहीं। उस हेतु के लिए भी यदि दूसरा स्वहेतु मानेंगे तो अनवस्था दोष आयेगा, वह अनिष्ट है। अन्त में यदि अनवस्था दोष को दूर करने में समर्थ नित्य हेतु को स्वीकार करते हैं तो रचना विशेष की उत्पत्ति के लिए प्रथम ही नित्य हेतु को स्वीकार करना चाहिए। यदि नित्य हेतु को रचना विशेष का कारण मान भी लिया जाये तो वह नित्य हेतु कुछ व्यक्तियों में ही रचना विशेष को क्यों उत्पन्न करता है, अन्य व्यक्तियों में क्यों नहीं करता है, इसका हेतु कहना चाहिए। ___यदि कहते हैं कि नित्य हेतु का ऐसा स्वभाव वा वचनातीत सामर्थ्य है जिससे वह परिमित व्यक्तियों में ही विशेष रचना का निर्माण करता है तब तो उस वचनातीत स्वभाव से वा इस प्रकार के सामर्थ्य (शक्ति विशेष) से वचन मार्ग में अवतरित (वचन का विषयभूत) वस्तु को कारण मान कर वचन व्यवहार संबंधी लोकयात्रा प्रवृत्त होती है। भर्तृहरि ने भी कहा है कि सब के अन्त में जाकर पदार्थों का वचनातीत स्वभाव वा वस्तु की विशेष शक्ति ही कार्य के हेतुपने से व्यवस्थित है अर्थात् कार्य की उत्पत्ति में वस्तु का स्वभाव ही हेतु है, कारण है, अन्य नहीं; ऐसा स्वीकार करना पड़ेगा। क्योंकि निर्विकल्प स्वभाव से लौकिक व्यवहार नहीं चल सकता अर्थात् यद्यपि वस्तु निर्विकल्प है फिर भी लोकयात्रा के अनुरोध से वस्तु के कतिपय अंश शब्द के द्वारा वाच्य होते हैं अत: वचन के गोचर वस्तु को कारण मानकर उत्पन्न हए लोक व्यवहार के अनुकूल चलने वाले पुरुषों के द्वारा सदृश परिणाम लक्षण जाति को स्वीकार करना चाहिए। उस जाति से साधने योग्य कार्य का और उसके अधिकरण के द्वारा सिद्ध करना शक्य नहीं है जैसे पुरुष में ‘दण्डी' ऐसा सिद्ध करना शक्य नहीं है। क्योंकि दण्ड के सम्बन्ध से साध्य दण्ड वाला यह कार्य केवल दण्ड के अधिकरणभूत पुरुषमात्र से सिद्ध होना शक्य नहीं है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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