________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 80 स्वविसदृशपरिणामांतरेभ्य इति चेदनवस्थानं / स्वत एवेति चेत्सर्वत्र विसदृशपरिकल्पनानर्थक्यं / स्वकारणादुपजाताः सर्वे विसदृशप्रत्ययविषयाः स्वभावत एवेति चेत् , समानप्रत्ययविषयास्ते स्वभावत: स्वकारणादुपजायमानाः किं नानुमन्यते तथा प्रतीत्यपलापे फलाभावात् / केवलं स्वस्वभावो विशेषप्रत्ययविषयोर्थानां विसदृशपरिणामः,समानप्रत्ययविषयः सदृशपरिणाम इति व्यपदिश्यते न पुनरव्यपदेश्यः। सामर्थ्य वा तत्तादृशमिति पर्यंते व्यवस्थापयितुं युक्तं, ततो लोकयात्रायाः प्रवृत्त्यनुपपत्तेः। विसदृश परिणामान्तर से, दूसरे परिणामों से विशेषा की सिद्धि होती है तो इसमें अनवस्था दोष आता है अर्थात् जैसे विशेष ज्ञान के लिए विसदृश परिणामों की आवश्यकता है उसी प्रकार विसदृश परिणामों को भी परस्पर विशेषता लाने के लिए अपने से अतिरिक्त दूसरे विसदृश परिणामों की अपेक्षा होगी और उन विसदृश परिणामों में भी अन्य तीसरे विसदृश परिणामों से ही विशेषता हो सकेगी। इस प्रकार अनवस्था विसदृश परिणामों में भी आयेगी अर्थात् जैसे सदृश परिणामोंको मानने में अनवस्था कहते हो तो उसी प्रकार विसदृश परिणामों में भी अनवस्था दोष आता है। अतः विसदृश परिणामों की कल्पना करना व्यर्थ है। यदि कहो कि अपने-अपने कारणों से उत्पन्न हुए सर्व पदार्थ स्वभाव से ही विसदृश ज्ञान के विषय होते हैं तो अपने-अपने कारणों से उत्पन्न होने वाले सर्व (गौ घट आदि) पदार्थ भी स्वभाव से समान ज्ञान का विषय होते हैं, ऐसा क्यों नहीं मानते हो (क्योंकि जैसे विसदृश की प्रतीति होती है वैसी सदृश की प्रतीति भी होती है) अत: प्रसिद्ध प्रतीति का अपलाप करने में फल का अभाव है, कोई लाभ नहीं है। समान और विशेष दोनों ही वस्तु के स्वभाव हैं, केवल वस्तु का अपना स्वभाव जो विशेष ज्ञान का विषय होता है वह अंश विसदृश परिणाम है और जो तादात्म्य निज स्वभाव पदार्थों के समान ज्ञान के गोचर होता है, वह अंश सदृश परिणाम है, ऐसा कहा जाता है। परन्तु वस्तु का स्वभाव सर्वथा अवाच्य नहीं है अर्थात् जैसे बौद्ध लोग विशेष पदार्थ को अवाच्य मानते हैं वैसा सामान्य पदार्थ (गुण) और विशेष पदार्थ अवाच्य नहीं है। किसी प्रकार भी जब सामान्य के बिना विशेष सिद्ध नहीं होता तब अन्त में मीमांसक कहते हैं कि इस प्रकार का सामर्थ्य है जो सदृश का ज्ञान करा देता है परन्तु वह सामर्थ्य भी समान (सदृश) की व्यवस्था करने में युक्त नहीं है क्योंकि इससे लोकयात्रा (व्यवहार) की प्रवृत्ति नहीं हो सकती अर्थात् सादृश्य को वास्तविक और वाच्य स्वीकार किए बिना पदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकता। नेयायिक लोग जाति आकृति और व्यक्ति इन तीनों को पद का वाच्य अर्थ मानते हैं अत: गौ शब्द से गोत्व जाति तथा गौ का आकार और गोव्यक्ति कही जाती है। केवल आकृति को ही पद का वाच्य अर्थ मानने वाले कहते हैं कि अन्वय सहित सदृश ज्ञान का विषय रचना (आकृति) विशेष है। जैनाचार्य कहते हैं कि यदि सदृश ज्ञान का विषय रचना विशेष है तो वह कतिपय कुछ परिमित व्यक्तियों में ही क्यों है, अन्य व्यक्तियों में क्यों नहीं है अर्थात् गौ का आकार गौ में ही क्यों है, ऊँट आदि में क्यों नहीं है ? यदि कहो कि स्वकारण के वश वह विशेष रचना परिमित व्यक्तियों में है, अन्य व्यक्तियों में नहीं है तो हम पूछते