________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 79 भिन्ना सैव सदृशपरिणाम इति नाममात्रं भिद्यते कथं नियतव्यक्त्याश्रयाः केचिदेव सदृशपरिणामाः समानप्रत्ययविषया इति चेत् , शक्तयः कथं काश्चिदेव नियतव्यक्त्याश्रयाः समानप्रत्ययविषयत्वहेतवः? इति समः पर्यनुयोगः / शक्तयःस्वात्मभूता एव व्यक्तीनां स्वकारणात्तथोपजाता इति चेत् सदृशपरिणामास्तथैव संतु। मनु च यथा व्यक्तयः समाना एता इति प्रत्ययस्तत्समानपरिणामविषयस्तथा समानपरिणामा एते इति तत्र समानप्रत्ययोपि तदपरसमानपरिणामहेतुरस्तु / तथा चानवस्थानं / यदि पुनः समानपरिणामेषु स्वसमानपरिणामाभावेपि समानप्रत्ययस्तदा खंडादिव्यक्तिषु किं समानपरिणामकल्पनया। नित्यैकव्यापिसामान्यवत्तदनुपपत्तेरिति चेत् कथमिदानीमर्थानां विसदृशपरिणामा विशेषप्रत्ययविषयाः? उनको ही जाति पर्यायवाची शब्द से स्वीकार किया है अर्थात् अभेद रूप सादृश्य और आत्मभूत शक्तियों को ही जाति कहते हैं। यदि कहो कि व्यक्तियों की शक्ति पृथक् -पृथक् है (एक नित्य जाति रूप नहीं है) तो हम उस सदृश परिणाम रूप शक्ति को ही जाति कहते हैं अतः सदृश परिणाम रूप शक्ति और जाति में नामभेद है, अर्थभेद नहीं है। _ शंका : नियमित विशेष व्यक्ति के आश्रयभूत कोई भी सदृश परिणाम समान ज्ञान के विषय कैसे हो सकते हैं ? उत्तर : तो नियमित व्यक्तियों के आश्रय में रहने वाली कोई शक्तियाँ समान ज्ञान का विषय कैसे हो सकती हैं ? इस प्रकार तुम्हारा और हमारा प्रश्न समान ही है (अर्थात् जैसा नियत व्यक्ति के आश्रय में रहने वाली शक्तियों का समान ज्ञान होता है वैसे नियत व्यक्ति विशेष में रहने वाले सदृश परिणाम भी समान ज्ञान के विषय होते हैं।) यदि कहो कि व्यक्तियों (विशेष) की स्वभावभूत ही शक्तियाँ हैं अर्थात् शक्ति व्यक्ति का निजस्वभाव है इसलिए वे अपने कारण से उत्पन्न होती हैं और समान ज्ञान का विषय होती हैं तो हम भी कह सकते है कि सदृश परिणाम भी अपने कारणों से उत्पन्न होकर समान ज्ञान का विषय होते हैं क्योंकि ये दोनों समान है अत: जिन कारणों से गौ उत्पन्न होती है उन्हीं कारणों से गौ के सदृश परिणाम भी उत्पन्न होते हैं। वे गौ में समान ज्ञान कराने में कारण हैं, विसदृश व्यक्तियों में नहीं। - शंका : जैसे ये व्यक्तियाँ (गौ आदि पर्यायें) समान हैं इस प्रकार का ज्ञान उस समान परिणति का विषय करने वाला है, उसी प्रकार अनेक गौओं में रहने वाले ये समान परिणाम हैं। उन समान परिणामों में होने वाला समान ज्ञान भी उस समान ज्ञान से भिन्न समान परिणामों का कारण है तो अनवस्था दोष आयेगा. और उस अनवस्था दोष को दूर करने के लिए यदि समान परिणामों में अपने समान परिणामों के बिना भी समान ज्ञान हो जाता है, ऐसा माना जाता है तो खण्ड, मुण्ड, शावलेय आदि व्यक्ति (गोव्यक्तियों)में सदृशरूप समान परिणाम की कल्पना से क्या प्रयोजन है अर्थात् कुछ भी नहीं, ऐसी दशा में जैसे नित्य, एक और व्यापक (अनेक व्यक्ति में रहने वाला) सामान्य पदार्थ नहीं बनता, उसी प्रकार जैनमत में कथित सदृश परिणाम भी सिद्ध नहीं होता। समाधान : यदि सदृश परिणाम सिद्ध नहीं होते हैं तो इस समय या इस विचार में पदार्थों के विसदृश परिणाम ज्ञान के हेतु रूप विशेष कैसे सिद्ध हो सकेंगे। यदि कहो कि अपने