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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 78 न, विसदृशव्यक्तेरपि व्यक्त्यंतरापेक्षया समानप्रत्ययविषयत्वप्रसंगात् / तथा च दधिकरभादयोपि समाना इति प्रतीयेरन् / ननु चैकस्यां गोव्यक्तौ गोत्वं सदृशपरिणामो गोव्यक्त्यंतरसदृशपरिणाममपेक्ष्य यथा समानप्रत्ययविषयस्तथा सत्त्वादिसदृशपरिणामं कर्कादिव्यक्तिगतमपेक्ष्य स तथास्तु भेदाविशेषात्तदविशेषेपि शक्तिः तादृशी तस्य तया किंचिदेव सदृशपरिणामं सन्निधाय तथा न सर्वमिति नियमकल्पनायां दधिव्यक्तिरपि दधिव्यक्त्यंतरापेक्ष्य दधित्वप्रत्ययतामियतु तादृशशक्तिसंधानात्करभादीनपेक्ष्य मास्मेय इति चेत् सा तर्हि शक्तिर्व्यक्तीनां कासांचिदेव समानप्रत्ययत्वहेतुर्योका तदा जातिरेवैकसादृश्यवत्। तदुक्तं जातिवादिना। "अभेदरूपं सादृश्यमात्मभूताश्च शक्तयः / जातिपर्यायशब्दत्वमेषामभ्युपवर्ण्यते" इति। अथ शक्तिरपि तासां करके ही अन्वय ज्ञान का विषय हो जायेगा क्योंकि सामान्य और विशेष में विशेषता का अभाव है अतः सदृश परिणामों की कल्पना करने से कोई प्रयोजन नहीं है। उत्तर : ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि यदि व्यक्ति से भिन्न एक सदृश परिणाम की कल्पना नहीं की जायेगी तो विसदृश व्यक्ति के भी अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा से समान ज्ञान के विषयत्व का प्रसंग आयेगा और विसदृश व्यक्ति से समान ज्ञान हो जाने पर दही और ऊँट के बच्चे आदि में भी समानता हो जाएगी क्योंकि व्यक्ति-व्यक्ति समान हैं। परन्तु दही और ऊँट के बच्चे में समानता का ज्ञान नहीं होता अतः अनुमान ज्ञान से निश्चय होता है, व्यक्ति से कथञ्चित् भिन्न सदृश परिणाम ही समान ज्ञान का विषय है। इसीलिए ऊँट में ऊँटों के समान परिणाम है और दधि में अन्य दधि व्यक्तियों के समान परिणाम हैं, वह ऊँट से विलक्षण है। शंका : एक विशेष गोव्यक्ति में सदृश परिणाम रूप गोत्व यदि अन्य गो व्यक्तियों के सदृश परिणाम रूप गोत्व की अपेक्षा करके जैसे समान ज्ञान का विषय है वैसे ही कर्क, श्वेत घोड़ा आदि व्यक्तिगत सत्त्व या अस्तिपना आदि सदृश परिणामों की अपेक्षा करके (अपेक्षा से) वह सदृश परिणाम ही समान ज्ञान का विषय हो जायेगा (क्योंकि इनमें भेद की अविशेषता है (अर्थात् जैसा अस्तित्व, वस्तुत्व आदि धर्मों की अपेक्षा से घोड़ा, भैंसा आदि में सदृशता होने से समानपने का ज्ञान होता है वैसे अनेक गोव्यक्तियों के सदृश घोड़ा आदि में भी समानपने का ज्ञान होना चाहिए क्योंकि सदृशपने में और व्यक्तिपने में कोई अन्तर नहीं है) यदि सदृश और व्यक्ति में विशेषता न होने पर भी उस सदृश परिणाम की वैसी एक शक्ति है ,जिस शक्ति से किसी सदृश परिणाम का सन्निधान करके उस प्रकार का समान ज्ञान होता है, सर्व सदृश परिणामों की अपेक्षा करके समान ज्ञान नहीं होता है; इस प्रकार नियम की कल्पना करने पर तो दधि रूप व्यक्ति भी अन्य दधि (दही) रूप अनेक व्यक्तियों की अपेक्षा करके दधित्व ज्ञान के विषयत्व को प्राप्त हो जायेगी (क्योंकि इस प्रकार की शक्ति का सन्धान (मेल) दधि व्यक्तियों में ही है ऊँट आदि में नहीं) अत:इस प्रकार की शक्ति के सन्धान से ऊँट आदि की अपेक्षा करके दही के समान ज्ञान की विषयता नहीं है। इस प्रकार की शंका करने पर आचार्य समाधान करते हैं कि किन्हीं व्यक्तियों का समान ज्ञान कराने में कारणभूत शक्ति यदि एक है तो वह शक्ति ही एक सादृश्य के समान जाति है अर्थात् नित्य और एक होकर अनेक में रहने वाली वस्तु ही जाति है जैसे वैशेषिकों ने अनेक में रहने वाले एक सादृश्य को जाति माना है। सो ही जाति वादियों ने कहा है कि अनेक व्यक्तियों में रहने वाला अभेद रूप एक सादृश्य और पदार्थ की आत्मभूत शक्तियाँ हैं
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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