________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 77 ' नोत्पत्तिमंत्सामान्यमुत्पित्सुव्यक्तेः पूर्वं व्यक्त्यंतरे तत्प्रत्ययादिति चेत् / तत एव विशेषोप्युत्पत्तिमान्मा भूत्। पूर्वो विशेषः स्वप्रत्ययहेतुरन्य एवोत्पित्सुविशेषादिति चेत्, पूर्वव्यक्तिसामान्यमप्यन्यदस्तु। तर्हि सामान्य समानप्रत्ययविषयो न स्यात् व्यक्त्यात्मकत्वाद्व्यक्तिस्वात्मवदिति चेत् न, सदृशपरिणामस्य व्यक्तेः कथंचिद्रेदप्रतीतेः। प्रथममेकव्यक्तावपि सदृशपरिणामः समानप्रत्ययविषयः स्यादिति चेत् न, अनेकव्यक्तिगतस्यैवानेकस्य सदृशपरिणामस्य समानप्रत्ययविषयतया प्रतीतेः विशेषप्रत्ययविषयतया वैसदृशपरिणामवत् / ननु च प्रतिव्यक्तिभिन्नो यदि सदृशपरिणामः परं सदृशपरिणाममपेक्ष्य समानप्रत्ययविषयस्तदा व्यक्तिरेव परां व्यक्तिमपेक्ष्य तथास्तु विशेषाभावादलं सदृशपरिणामकल्पनयेति चेत् __सामान्य उत्पत्तिमान् नहीं है क्योंकि उत्पत्तिमान् व्यक्ति के पूर्व व्यक्ति अन्तर में सामान्य का ज्ञान होता है ऐसा कहने पर आचार्य कहते हैं कि तब तो सामान्य के समान विशेष भी उत्पत्तिमान् नहीं होगा क्योंकि विशेष की भी उत्पत्ति से पूर्व पर्याय में प्रतीति होती है। यदि कहो कि उत्पन्न होने वाले विशेष से अन्य (भिन्न) पूर्व वाला विशेष अपने प्रत्यय (ज्ञान) का हेतु होता है (क्योंकि विशेष अनेक हैं) तो उत्पन्न होने वाले सामान्य से पूर्व व्यक्तियों (पर्यायों) का सामान्य भी भिन्न होगा। (उसको भी भिन्न मानना चाहिए) क्योंकि सामान्य भी अनेक हैं। प्रश्न : यदि सामान्य को अनेक मानोगे तो वह इसके समान है, यह इसके समान है, इस प्रकार सामान्य ज्ञान का विषय सामान्य पदार्थ नहीं होगा। व्यक्ति के स्वात्म के समान व्यक्त्यात्मक होने से। अर्थात् वैसे-पर्याय का अपना व्यक्ति स्वरूप आत्मा सर्वथा एक व्यक्तिरूप होने से अन्वय रूप सामान्य ज्ञान का विषय नहीं है वैसेही व्यक्तिरूप सामान्य भी अन्वय ज्ञान का विषय नहीं होगा। उत्तर : ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि सदृश परिणाम का व्यक्ति से कथंचित् भेद प्रतीत होता है अर्थात् व्यक्ति (सामान्य) और सदृश रूप पर्याय में सर्वथा अभेद नहीं है कथंचित् भेद है और कथंचित् अभेद है। शंका : व्यक्ति को जाति मान लेने पर एक व्यक्ति में पूर्व में ही सदृश परिणाम रूप जाति समान ज्ञान का विषय हो जायेगा अर्थात् केवल एक व्यक्ति को देख लेने पर यह समान है', ऐसा ज्ञान हो जायेगा। क्योंकि जैन मतानुसार एक व्यक्ति में पूरा सदृश परिणाम रूप सामान्य पहले से ही विद्यमान है? उत्तर : ऐसा कहना उपयुक्त नहीं है क्योंकि विशेष रूप से ज्ञान का विषय होने वाले विसदृश परिणाम के समान अनेक व्यक्तिगत अनेक सदृश परिणामों के समान ज्ञान के विषय की प्रतीति होती है अर्थात् जैसे नैयायिकों के द्वारा स्वीकृत विसदृश परिणाम एक व्यक्ति में रहकर भी 'यह इस से विलक्षण' इस प्रकार भिन्न-भिन्न रूप से विशेष ज्ञान का विषय होता है वैसे ही अनेक व्यक्तिगत निज-निज संबंध को प्राप्त अनेक सदृश परिणाम भी यह इसके समान है।' इस रूप से भिन्न-भिन्न सदृशों की प्रतीति होती है। जैसे विशेष पृथक् -पृथक् पाये जाते हैं, वैसे सदृशता भी पृथक्-पृथक् प्रतीत होती है। शंका : यदि सदृश परिणाम प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न-भिन्न है तथा केवल सदृश परिणाम की अपेक्षा करके ही समान ज्ञान का विषय होता है तब तो व्यक्ति रूप ही हुआ और वह केवल व्यक्ति की अपेक्षा