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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 76 येन भेदाभेदैकांतदोषोपपातः / कथंचिद्भेदाभेदात्। न च तेषु तस्य कथंचित्तादात्म्यादन्या वृत्तिरेकदेशेन सर्वात्मना वा यतः सावयवत्वं सादृश्यपरिणामस्य व्यक्त्यंतरा वृत्तिर्वा स्यात्। न चास्य सर्वगतत्वं येन कर्कादिषु गोत्वादिप्रत्ययसांकर्यं, नापि स्वव्यक्तिषु सर्वास्वेक एव येनोत्पित्सुव्यक्तौ पूर्वाधारस्य त्यागेनागमने तस्य नि:सामान्यत्वं तदत्यागेनागतौ सावयवत्वं प्रागेव तद्देशेस्तित्वे स्वप्नप्रत्ययहेतुत्वं प्रसज्यते, विसदृशपरिणामेनेव सदृशपरिणामेनाक्रांताया एवोत्पित्सुव्यक्तेः स्वकारणादुत्पत्तेः। कथमेवं नित्या जातिरुत्पत्तिमद्व्यक्तिव्यदिति चेत्, द्रव्यार्थादेशादिति ब्रूमः / व्यक्तिरपि तथा नित्या स्यादिति चेत् न किंचिदनिष्टं, पर्यायार्थादेशादेव विशेषपर्यायस्य सामान्यपर्यायस्य वा नित्यत्वोपगमात् / तादात्म्य सम्बन्ध से भिन्न नहीं है क्योंकि यदि सादृश्य परिणाम की एकदेश कर के भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में वृत्ति संबंध माना जायेगा तो सादृश्य परिणाम के सावयवत्व का प्रसंग आयेगा अर्थात् सामान्य कुछ एक गाय में रहेगा कुछ दूसरी गाय में। अथवा सर्वात्म रूप से सामान्य का विशेष के साथ संबंध मानेंगे तो व्यक्ति अन्तर में वृत्ति नहीं होगी अर्थात् एक ही द्रव्य में सामान्य की वृत्ति होगी परन्तु जैनधर्म में यद्यपि संग्रहनय की अपेक्षा अनेक सदृश परिणामों को एक भी कह सकते हैं और व्यवहार नय की अपेक्षा भेद भी कह सकते हैं, अत: कोई दोष नहीं आ सकता। जैन इस सदृश परिणाम को सर्वगत (सर्वव्यापक) नहीं मानते हैं अतः इनके कर्कादि घोड़ा आदि में गोत्व आदि प्रत्यय (ज्ञानों) का सांकर्य (एकता) नहीं हो सकता। (सर्व विशेषों में अपना-अपना सामान्य रहता है) और न सभी गौ व्यक्तियों में एक सामान्य मानते हैं। जिससे उत्पन्न होने वाली एक व्यक्ति में पूर्व आधार छोड़कर उस गोत्व का आगमन माना जावेगा तो उस पहली गौ व्यक्ति को सामान्य से रहितपने का प्रसंग आयेगा। यदि पूर्व आधार को न छोड़कर वह गोत्व नवीन उत्पन्न हुई गौ में आ जावेगा तब तो गोत्व के सावयव का प्रसंग आयेगा। (कुछ अंशों में गोत्व पहले के आधार में रहेगा और कतिपय अंश अन्य स्थल उत्पन्न नवीन गौ में रहेंगे अतः सावयवत्व होगा।) तथा नवीन गौ के उत्पन्न होने वाले उस प्रदेश में पहले से ही गोत्व का अस्तित्व माना जायेगा तो वह स्वप्न ज्ञान के समान (निराधारत्व) हेतुत्व का प्रसंग आयेगा अतः अपने कारणों से उत्पन्न होने वाली उत्पत्तिमत् पर्यायें जैसे विसदृश (विशेष) परिणाम से उत्पन्न होती है वैसे ही सदृश परिणाम से भी आक्रान्त होकर उत्पन्न होती है। अर्थात् सामान्य विशेषात्मक धर्मों से युक्त ही व्यक्ति (पर्यायें) अपने-अपने कारणों से उत्पन्न होती हैं। प्रश्न : इस प्रकार अपने कारणों से उत्पन्न होने वाली तथा व्यक्ति (पर्याय) के समान होने वाली भी जाति नित्य कैसे है? उत्तर : द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा हम जाति को नित्य कहते हैं। प्रश्न : तो द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा पर्याय को भी जाति के समान नित्य मानना चाहिए ? उत्तर : द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा व्यक्ति को नित्य मानना स्याद्वादियों को किंचिदपि अनिष्ट नहीं है क्योंकि पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा विशेष पर्याय और सामान्य पर्याय दोनों को ही अनित्य स्वीकार किया है अर्थात् द्रव्य दृष्टि से सर्व पदार्थ नित्य हैं, पर्याय दृष्टि से नहीं। अथवा कथञ्चित् पर्याय भी नित्य है क्योंकि पर्याय को कथञ्चित् नित्य नहीं मानने पर सिद्ध अनन्तकाल तक.नहीं रह सकते तथा मेरु, स्वर्ग विमान, हिमवन् आदि पर्वत नित्य नहीं हो सकते।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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