________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 75 गौरिति प्रत्ययात् खंडोयं मुंडोयमितिप्रत्ययवत्। भ्रांतोयं सादृश्यप्रत्ययः इति चेत् विसदृशप्रत्ययः कथमभ्रांत:? सोपि भ्रान्त एव स्वलक्षणप्रत्ययस्यैवाभ्रान्तत्वात् तस्य स्पष्टाभत्वादविसंवादकत्वाच्चेति चेत्, नाक्षजस्य सादृश्यादिप्रत्ययस्य स्पष्टाभत्वाविशेषादभ्रांतत्वस्य निराकर्तुमशक्तेः / सादृश्यवसदृश्यव्यतिरेकेण स्वलक्षणस्य जातुचिदप्रतिभासनात्। सदृशेतरपरिणामात्मकस्यैव सर्वदोपलंभात्। सर्वतो व्यावृत्तानंशक्षणिकस्वलक्षणस्य प्रत्ययविषयतया निराकरिष्यमाणत्वात्। सविकल्पप्रत्यक्षे सदृशपरिणामस्य स्पष्टमवभासनात् सर्वथा बाधकाभावात्। वृत्तिविकल्पादिदूषणस्यात्रानवतारात्। न हि सदृशपरिणामो विशेषेभ्योत्यंत भिन्नो नाप्यभिन्नो क्योंकि प्रतीति सिद्ध होने से जाति आदि शब्द निमित्तों की उत्पत्ति वक्ता का अभिप्राय और जाति आदि निमित्तान्तरों की अपेक्षा रखता है। तथा विसदृश परिणाम नामक विशेष के समान पदार्थों की सदृश परिणाम रूप जाति प्रत्यक्ष से प्रतीत होती है, जैसे गौ भैंस आदि विशेष का ज्ञान होता है वा यह खण्ड है यह मुण्ड है, इत्यादि विसदृश का ज्ञान होता है वैसे यह पिण्ड है, यह गाय है, इस प्रकार सदृश परिणाम का भी ज्ञान होता है। ... यदि कहो कि यह सदृश प्रत्यय (ज्ञान) भ्रान्त है, कल्पना है तो विसदृश प्रत्यय (विसदृशका ज्ञान) अभ्रान्त कैसे हो सकता है। यदि कहो कि विसदृश प्रत्यय भी भ्रान्त है, स्पष्ट होने से और अविसंवादकत्व होने से स्वलक्षण प्रत्यय (निर्विकल्प ज्ञान) के ही अभ्रान्तपना है, प्रमाणपना है अर्थात् सदृश परिणाम और विसदृश परिणाम कल्पित होने से भ्रान्त हैं और स्वलक्षण प्रत्यक्ष अविसंवादी होने से प्रमाणभूत है, तो स्पष्टत्व की अविशेषता होने से इन्द्रियजन्य सदृश विसदृश प्रत्यय (ज्ञान) के अभ्रान्तत्व का निराकरण करना अशक्य होगा अर्थात् जैसे स्वलक्षण प्रत्यक्ष स्पष्ट होने से प्रमाणभूत है उसी प्रकार सदृश (सामान्य) विसदृश (विशेष) पदार्थ का भी इन्द्रियजन्य ज्ञान में स्पष्ट प्रतिभास हो रहा है अत: यह इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष में भी प्रमाणभूत होगा क्योंकि इन दोनों स्वलक्षण प्रत्यक्ष और इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष में कोई विशेषता नहीं है तथा सामान्य और विशेष से रहित स्वलक्षण का कभी भी प्रतिभास (ज्ञान) नहीं हो सकता क्योंकि सामान्य विशेषात्मक वस्तु की सर्वदा उपलब्धि होती है। सर्व धर्मों (सामान्य विशेष धर्मों) से पृथक्भूत निरंश क्षणिक (अंशों से सर्वथा रहित क्षण-क्षण में नष्ट होने वाला) स्वलक्षण के ज्ञान की विषयता का आगे निराकरण (खण्डन) करेंगे क्योंकि निरंश स्वलक्षण किसी भी ज्ञान का विषय नहीं हो सकता क्योंकि सामान्य विशेष से रहित कोई वस्तु ही नहीं है, फिर ज्ञान किसका होगा। सर्व प्रकार से बाधक प्रमाण का अभाव होने से सविकल्प प्रत्यक्ष में सदृश (सामान्य) परिणाम का स्पष्ट रूप से अवभास (प्रकाश) होता है अत: इसमें वृत्ति संबंध के विकल्प आदि दोषों का अवतार नहीं है क्योंकि विशेष व्यक्तियों (पर्यायों) से सदृश परिणाम (सामान्य द्रव्य) न तो अत्यन्त (सर्वथा) भिन्न है और न सर्वथा अभिन्न है जिससे भेद वा अभेद एकान्त का दोष आ सकता हो अर्थात् पर्याय से पर्यायी सर्वथा भिन्न वा अभिन्न नहीं है अपितु कथञ्चित् भिन्न है और कथञ्चित् अभिन्न है अतः एकान्त में दिए गए भेद और अभेद के दोष स्याद्वाद में नहीं आ सकते (कथञ्चित् भेद और अभेद को ही कथंचित् तादात्म्य कहते हैं।) उन विशेष व्यक्तियों में उस सादृश्य स्वरूप (सामान्य) जाति की वृत्ति (सम्बन्ध) कथञ्चित्