________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 74 तथा सति न शब्दानां वाच्या जातिगुणक्रियाः। द्रव्यवत्समवायेन स्वसंबंधिषु वर्तनात् // 11 // यथा जात्यादयो द्रव्ये समवायबलात् स्थिताः / शब्दानां विषयस्तद्वत् द्रव्यं तत्रास्तु किंचन // 12 // संयोगबलतश्चैवं वर्तमानं तथेष्यताम् / द्रव्यमाने तु संज्ञानं नामेति स्फुटमीक्ष्यते // 13 // तेन पंचतयी वृत्तिः शब्दानामुपवर्णिता। शास्त्रकारैर्न बाध्येत न्यायसामर्थ्यसंगता // 14 // ___वक्तुर्विवक्षायामेव शब्दस्य प्रवृत्तिस्तत्प्रवृत्तेः सैव निमित्तं न तु जातिद्रव्यगुणक्रियास्तदभावात्। स्वलक्षणेध्यक्षतस्तदनवभासनात्, अन्यथा सर्वस्य तावतीनां बुद्धीनां सकृदुदयप्रसंगात् / प्रत्यक्षपृष्टभाविन्यांतु कल्पनायामवभासमाना जात्यादयो यदि शब्दस्य विषयास्तदा कल्पनैव तस्य विषय इति केचित्। तेप्यनालोचितवचनाः। प्रतीतिसिद्धत्वाज्जात्यादीनां शब्दनिमित्तानां वक्तुरभिप्रायनिमित्तांतरतोपपत्तेः। सदृशपरिणामो हि जातिः पदार्थानां प्रत्यक्षतः प्रतीयते विसदृशपरिणामाख्यविशेषवत् / पिंडोयं गौरयं च ऐसा होने पर अर्थात् शब्दों की भिन्न प्रवृत्ति होने पर समवाय से संबंधों में रहने वाले द्रव्य के समान जाति, गुण, क्रिया उन शब्दों के वाच्य नहीं है अर्थात् जैसे कुण्डल आदि के संयोग से कुण्डली आदि कहलाता है उस प्रकार गोत्व आदि जाति, मधुरत्व आदि गुण, पढ़ना आदि क्रिया भिन्न पदार्थ के संयोग से नहीं है॥११-१२॥ जैसे द्रव्य में जाति आदि नाम स्थित हैं समवाय तादात्म्य संबंध से वे शब्द का विषय होते हैं, उसी प्रकार द्रव्य भी द्रव्य में स्थित रहता है। जैसे वृक्ष द्रव्य अपनी शाखा द्रव्य से शाखी है ऐसा कहा जाता है, जैसे समवाय संबंध से विषाणी आदि नाम हैं। उसी द्रव्य संयोग संबंध से भी कुण्डली नाम का ज्ञान होता है अत: द्रव्य संयोग से भी द्रव्य में नाम स्थित है / ऐसा स्फुट जाना जाता है। ऐसा स्वीकार करना चाहिए।।१३। इस प्रकार शब्दों की प्रवृत्ति शास्त्रकारों के द्वारा जाति, गुण, क्रिया, संयोगी, द्रव्य, समवायी द्रव्य के भेद से पाँच प्रकार की कही गई है। यह विद्वान् जनों के द्वारा कथित पाँच प्रकार की नाम की प्रवृत्ति न्याय के सामर्थ्य से संगत होने से बाधित नहीं है। अर्थात् यह पाँच प्रकार के नामों की प्रवृत्ति न्यायसंगत है अत: किसी भी शास्त्रकार के द्वारा खण्डित नहीं होती। इस प्रकार जाति, द्रव्य, गुण, क्रिया, शब्द की उत्पत्ति में निमित्तता है // 14 // वक्ता (बोलने वाले) की इच्छा होने पर जो शब्द की प्रवृत्ति / होती है उसमें वक्ता की इच्छा ही निमित्त है किन्तु जाति, द्रव्य, गुण, क्रियायें उस शब्द के निमित्त नहीं। हैं क्योंकि इन शब्दों को निमित्त मानकर शब्दों की प्रवृत्ति नहीं होती। अत: नाम निक्षेप जाति निमित्तान्तरों से नहीं कहे जाते हैं क्योंकि वक्ता की इच्छा से कहे जाते हैं। शंकाः प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा जाने गये स्व क्षण में उन जाति, गुण आदि का प्रतिभास नहीं होता है। यदि प्रत्यक्ष में जाति का प्रतिभास स्वीकार कर लिया जायेगा तो सभी जीवों के जाति आदि सहित उतनी अनेक बुद्धियों (ज्ञानों) का एक समय में उत्पन्न होने का प्रसंग आयेगा। अर्थात् निर्विकल्प प्रत्यक्ष में जाति, द्रव्य आदि का उल्लेख नहीं होता क्योंकि जाति को जानने वाला ज्ञान भिन्न है और द्रव्य को जानने वाला भिन्न / यद्यपि प्रत्यक्ष ज्ञान के पीछे मिथ्या वासनाओं के अधीन होने वाली कल्पना (मिथ्याज्ञान) में प्रतिभासित होने वाले जाति शब्द के विषय होते हैं परन्तु उस समय वे शब्द कल्पना ही हैं वास्तविक नहीं हैं, ऐसा कोई (बौद्ध अनुयायी) कहते हैं। समाधान स्वरूप आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने वाले वे अनालोचित वचन वाले (बिना विचारे कथन करने वाले) हैं।