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________________ वस्तुत: तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन अत्यन्त सूक्ष्म गुण है। वह सामान्य मतिज्ञान और श्रुतंज्ञान का विषय नहीं है। ऐसी दशा में मतिज्ञान के भेदस्वरूप स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से वह नहीं जाना जा सकता है। वीतराग पुरुष अपने वीतराग सम्यक्त्व को स्वसंवेदन से जान लेते हैं या वह केवलज्ञान के द्वारा जाना जाता है। वीतराग सम्यक्त्व का अनुमान नहीं हो सकता है। सर्व ही सराग सम्यग्दर्शनों का अनुमान हो ही जावे, यह नियम नहीं है, वीतराग सम्यग्दर्शन का ज्ञान कर लेना तो दुस्साध्य है, प्रत्यक्षदर्शी उसको जानते हैं। श्रद्धान जड़ पदार्थों का गुण नहीं है। श्रद्धान को स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से चेतनात्मकपना सिद्ध है। ज्ञान चेतन स्वरूप है। आत्मा के सम्पूर्ण गुणों में चेतना से अन्वितपना पाया जाता है। अखण्ड आत्मा के गुणों का परस्पर में तदात्मक एक रस हो रहा है। सूत्र 3 : सम्यग्दर्शन नित्य नहीं है, वह अपने कारणों से उत्पन्न होता है। अत: सबसे पहले आचार्यश्री ने सम्यग्दर्शन के नित्यपने, नित्यहेतुकपने और अहेतुकपने का निराकरण किया है। सभी सम्यग्दर्शनों के निसर्ग और अधिगम दोनों हेतु बन जाते हैं। परोपदेश के बिना जिनबिम्ब आदि से हुए तत्त्वार्थज्ञान को अधिगम निर्णीत किया है। निसर्ग का अर्थ स्वभाव नहीं है। सम्यग्दर्शन होने से पूर्व रहे ज्ञान को सामान्य ज्ञान कहा गया है। यहाँ आचार्यश्री ने सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान की समीचीनता को विद्वत्तापूर्वक परिपुष्ट किया है। इसके बाद सभी सम्यग्दर्शनों के निसर्गजत्व के एकान्त का निराकरण किया है और बताया है कि कारणों के बिना मोक्ष, सुख, सम्यग्दर्शन आदि कोई भी कार्य निष्पन्न नहीं होता है। सम्यग्दर्शन के अन्तरंग और बहिरंग कारणों का व्याख्यान करके अनुमान के द्वारा उपशमादिक को सिद्ध किया है। विशिष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप निमित्तों से अनेक योग्य नैमित्तिक भाव उत्पन्न हो जाते हैं। निकट भव्य, दूरभव्य, अभव्य जीवों को स्वर्ण पाषाण और अन्ध पाषाण के दृष्टान्त से सिद्ध किया है। सूत्र 4 : मोक्षार्थी के लिए सात ही तत्त्व श्रद्धेय हैं। ग्रन्थकर्ता आचार्यश्री ने सयुक्ति इस तथ्य की स्थापना की है कि मुमुक्षु को सात ही तत्त्व उपयोगी हैं; दो, छह, आदि नहीं। पुण्य और पाप पदार्थों को बन्ध और आस्रव तत्त्व का ही भेद माना है। जीवादिक शब्दों की निरुक्ति करके उनके क्रम का औचित्य सिद्ध किया है। आचार्यश्री ने कहा है कि तत्त्वों का उपदेश जीव के लिए ही है। इसके बाद अजीव, आस्रव आदि के निरूपण में स्वरस बतलाया है। अनन्तर विशिष्टाद्वैतवादियों के परब्रह्मरूप एक जीवतत्त्व के ही एकान्त का अनेक युक्तियों से खण्डन कर अनेक जीवों को सिद्ध करते हुए शुद्धाद्वैतवादियों के प्रति भी अनेक सन्तानों को सिद्ध करा दिया है। अद्वैतवादियों के अनुमान, आगम और प्रत्यक्ष का प्रतिविधान कर अनेकत्व को सिद्ध करने वाले, प्रत्यक्ष, अनुमान और आगमों का समीचीनपना दर्शाया है। चेतनात्मक पदार्थों का सर्वज्ञ और स्वव्यक्ति के अतिरिक्त किसी अन्य जीव को प्रत्यक्ष नहीं होता है। उपेय से उपाय भिन्न है। वचन, प्रतिपाद्य का शरीर, लिपिअक्षर, घट आदि बहिरिन्द्रिय प्रत्यक्ष हैं। अतः ये सब अजीव हैं। इसके आगे जीव को न मानकर
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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