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________________ अकेले जड़तत्त्व को ही मानने वाले चार्वाक का खण्डन किया है। कई वादी आस्रव तत्त्व को नकारते हैं कि व्यापक आत्मा के कोई क्रिया नहीं हो सकती। जीवद्रव्य असंख्यात प्रदेशी है। वह लोकालोक में व्यापक नहीं है अतः अव्यापक आत्मा में क्रिया हो जाने से क्रिया रूप आस्रव तत्त्व की सिद्धि होती है। बन्ध होना आत्मा का विभावभाव है। संसारी जीव निर्लेप नहीं है। वह बहिरंग पुद्गल से बँध कर तन्मय हो रहा है। इसके आगे संवर और निर्जरा जो अकेले जीव के ही भाव हैं, उनका वर्णन है। बन्ध के समान मोक्ष को भी जीव-पुद्गल दोनों का धर्म बताया है। मोक्षार्थी को इन सातों तत्त्वों का श्रद्धान, ज्ञान और ध्यान करना चाहिए। यहाँ आचार्यश्री ने नैयायिकों और वैशेषिकों द्वारा मान्य तत्त्वों को युक्तिपूर्वक मोक्ष की सिद्धि में अमान्य किया है। सात तत्त्वों में जीव और अजीव ये दो धर्मी हैं। आस्रव तत्त्व अशुद्ध द्रव्य का गुण है, शेष तत्त्व पर्यायें हैं। द्रव्य, गुण और पर्याय के अतिरिक्त जगत् में कोई अन्य पदार्थ नहीं है। सहभावी और क्रमभावी पर्यायों का अखण्ड पिण्ड ही द्रव्य है। सूत्र 5 : पाँचवें सूत्र में चार निक्षेपों का कथन है। संज्ञाकरण को नाम कहते हैं जिसके अनेक भेद हैं। नाम निक्षेप की उत्पत्ति में वक्ता का अभिप्राय निमित्त है। इस सम्बन्ध में बौद्धों, मीमांसकों, वैयाकरणों, द्रव्यपदार्थवादियों, शब्दाद्वैतवादियों की शंकाओं व युक्तियों का बड़ी विद्वत्ता के साथ निराकरण करके शब्दजन्य ज्ञान की प्रमाणता बतायी है। शब्द का वाच्य विषय वस्तुभूत है जो जाति और व्यक्ति से तादात्म्य सम्बन्ध रखता हुआ परमार्थ वस्तु है। प्रत्यक्षादि के समान शब्द से भी वस्तु में प्रवृत्ति, प्रतिपत्ति और प्राप्ति होना पाया जाता है। सामान्य और विशेष एक दूसरे को छोड़ कर नहीं रहते हैं। अतः अन्य निमित्तों की अपेक्षा न करके संज्ञा करने को नामनिक्षेप कहते हैं। नाम की गयी वस्तु की कहीं प्रतिष्ठा करना स्थापना है। स्थापना में आदर, अनुग्रह की आकांक्षा अपेक्षित है, नाम में नहीं। भविष्य पर्याय के अभिमुख वस्तु को द्रव्य कहते हैं। द्रव्य की अनन्त पर्यायें एक सन्तानरूप हैं। सम्पूर्ण द्रव्यों में जीवप्रधान है जो ज्ञानगुण से जाना जाता है। वस्तु की वर्तमान पर्याय भाव है। नाम, स्थापना, द्रव्य निक्षेप द्रव्य की प्रधानता से है, भाव निक्षेप पर्याय की प्रधानता से पुष्ट किया गया है। द्रव्य और पर्याय समुदाय रूप वस्तु है। शब्द की अपेक्षा से निक्षेप संख्यात हैं। समान जातिवाले विकल्पज्ञान की अपेक्षा असंख्यात हैं और अर्थ की अपेक्षा से निक्षेप अनन्त हैं। न्यास और न्यस्यमान इनका कथंचित् भेद-अभेद है। नाम और स्थापना आदि निक्षेपों के विषयों में भी कथंचित् भेद है। चारों निक्षेपों की प्रवृत्ति एक स्थान पर पायी जा सकती है। प्रत्येक निक्षेप से अपने-अपने योग्य न्यारी-न्यारी अर्थक्रियाओं का होना सिद्ध है। अतः चारों ही वस्तुभूत हैं। इनके बिना लोकव्यवहार सम्भव नहीं है। ___ सूत्र 6 : वस्तु को सकलादेश द्वारा जानने वाले स्व-पर-प्रकाशक प्रमाणों से और वस्तु के अंश को विकलादेश द्वारा जानने वाले श्रुतज्ञानांश रूप नयों से सम्यग्दर्शनादि तथा जीवादि सम्पूर्ण पदार्थों का निर्णय होता है। प्रमाण के द्वारा वस्तु को जान कर उसके अंश को जानने में विवाद होने पर नय ज्ञान प्रवर्तता है। असंज्ञी जीवों के नयज्ञान नहीं होता। केवल श्रुतज्ञान के विषय में ही नय की प्रवृत्ति है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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