________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *71 नन्वते जीवादयः शब्दब्रह्मणो विवर्ताः शब्दब्रह्मैव नाम तत्त्वं नान्यदिति केचित् / तेषां कल्पनारोपमात्रत्वात्। तस्य च स्थापनामात्रमेवेत्यन्ये, तेषां द्रव्यांत:प्रविष्टत्वात्। तद्व्यतिरेकेणासंभवात् व्यमेवेत्ये के। पर्यायमात्रव्यतिरेकेण सर्वस्याघटनाद्भाव एवेत्यपरे। तन्निराकरणाय लोकसमयव्यवहारेष्वप्रकृतापाकरणाय प्रकृतव्याकरणाय च संक्षेपतो निक्षेपप्रसिद्ध्यर्थमिदमाह; नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः॥ 5 // न नाममात्रत्वेन स्थापनामात्रत्वेन द्रव्यमात्रत्वेन भावमात्रत्वेन वा संकरव्यतिरेकाभ्यां वा जीवादीनां नेक्षेप इत्यर्थः॥ तत्रसंज्ञाकर्मानपेक्ष्यैव निमित्तांतरमिष्टितः। नामानेकविधं लोकव्यवहाराय सूत्रितम् // 1 // न हि नाम्नोऽनभिधाने लोके तद्व्यवहारस्य प्रवृत्तिर्घटते येन तन्न सूत्र्यते। नापि तदेकविधमेव विशेषतोनेकविधत्वेन प्रतीतेः। किंचिद्धि प्रतीतमेकजीवनाम यथा डित्थ इति, किंचिदनेकजीवनाम यथा यूथ शंकाकार कहता है कि जीवादि सात तत्त्व शब्द ब्रह्म की पर्यायें हैं, शब्द ब्रह्म का ही नाम तत्त्व है। शब्द ब्रह्म से अतिरिक्त स्थापना आदि कुछ भी नहीं हैं। कोई कहते हैं कि जीवत्व आदि कल्पना मात्र से आरोपित है। उसकी स्थापना मात्र की जाती है अतः स्थापना मात्र ही द्रव्य है। कोई कहते हैं कि नाम स्थापना आदि के द्रव्य के अन्तर्गत प्रविष्टत्व है अर्थात् वे द्रव्य के अन्तर्गत हो जाते हैं अतः द्रव्य को छोड़कर नाम स्थापना और भाव की संभावना न होने से द्रव्य मात्र ही जीवादि तत्त्व है। कोई कहते हैं - पर्याय से भिन्न नाम, स्थापना आदि सभी की असम्भवता होने से भाव मात्र ही पदार्थ है। इस प्रकार कथन करने वाले एकान्तवादियों का निराकरण करने के लिए तथा सम्पूर्ण लोकप्रसिद्ध व्यवहारों में आये हुए अप्रकरण को दूर करने के लिए और प्रकरण गत पदार्थ का व्युत्पादन करने के लिए संक्षेप से निक्षेप की प्रसिद्धि के लिए सूत्र कहते हैं.... नाम निक्षेप, स्थापना निक्षेप, द्रव्य निक्षेप और भाव निक्षेप इन चारों से जीवादि पदार्थों का न्यास (प्रतिपादन) होता है॥५॥ केवल नाम मात्र से, स्थापना मात्र से, द्रव्यमात्र से और भाव मात्र से जीवादि पदार्थों का प्रतिपादन नहीं होता तथा संकर (एक दूसरे के गुण-पर्यायों से मिल जाना) और व्यतिरेक (अभाव वा एक दूसरे के विषय को ग्रहण करने) से जीवादि पदार्थों का प्रतिपादन नहीं होता अपितु चारों से ही भिन्न-भिन्न पदार्थों का अपने-अपने स्वरूप में लोक व्यवहार होता है अत: यहाँ सर्वप्रथम नाम निक्षेप का लक्षण कहते हैं निमित्तान्तर की अपेक्षा न करके लोक व्यवहार के लिए अनेक प्रकार की संज्ञा करना नाम निक्षेप है। ऐसे नाम की प्रकृत सूत्र में विवक्षा की है या सूत्र में गूंथा है।।१।। शंका : लोक में नाम निक्षेप का कथन नहीं करने पर भी नामों के व्यवहार की प्रवृत्ति घटित हो जाती है इसलिए नाम निक्षेप का सूत्र में कथन नहीं किया जावे। समाधान : ऐसा नहीं है, अर्थात् नाम