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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 70 तदसत्तस्य जीवादिस्वभावत्वेन निर्णयात्। तथा पुण्यास्रवत्वेन संवरत्वेन वा स्थितेः // 64 // जीवाजीवप्रभेदानामनंतत्वेपि नान्यता। प्रसिद्ध्यत्यास्रवादिभ्य इत्यव्याप्त्याद्यसंभवः // 65 // न हि जीवो द्रव्यमेव पर्याय एव वा येन तत्पर्यायविशेषाः सम्यग्दर्शनादयः तद्ग्रहणेन न गृह्यते, द्रव्यपर्यायात्मकस्य जीवत्वस्याभिप्रेतत्वात् / ततो नाद्रव्यत्वेपि रत्नत्रयस्य जीवेंतर्भावाभावः। तथास्रवादित्वाभावोप्यसिद्धस्तस्य पुण्यास्रवत्वेन संवरत्वेन च वक्ष्यमाणत्वात् इति नास्रवादिष्वनंतर्भावः। येपि च जीवाजीवयोरनंता: प्रभेदास्तेपि जीवस्य पुण्यागमस्य हेतवः पापागमस्य वा पुण्यपापागमननिरोधिनो वा तद्वंधनिर्जरणहेतवो वा मोक्षस्वभावा वा, गत्यंतराभावात् / इति नास्रवादिभ्योऽन्यतां लभ्यते येनाव्याप्तिरतिव्याप्त्यसंभवौ तु दूरोत्सारितावेवेति निरवद्यं जीवादिसप्ततत्त्वप्रतिपादकं सूत्रं, ततस्तदाप्तोपज्ञमेव // सात तत्त्वों में रत्नत्रय का संग्रह नहीं होता, ऐसा कहना प्रशंसनीय नहीं है क्योंकि रत्नत्रय जीवादि का स्वभाव होने से तथा पुण्यास्रव रूप से निर्णय होने से और संवरत्व से स्थित होने से जीव एवं अजीव के प्रभेदों की अनन्तता होने पर भी आस्रव आदि से अन्यता प्रसिद्ध नहीं है अर्थात् जीव द्रव्य के अनन्त गुण और अनन्त पर्याय हैं, उन सब का अखण्ड पिंड जीव है अतः रत्नत्रय जीव का स्वभाव होने से जीव. से भिन्न नहीं है जीव तत्त्व में गर्भित है तथा जीव के शुभ एवं शुद्ध परिणाम होने से संवर और निर्जरा तत्त्व से भी भिन्न नहीं है और पुण्यास्रव रत्नत्रय से होता है अत: रत्नत्रय आस्रव तत्त्व में भी गर्भित है। जीव अजीव के अनन्त प्रभेद हैं तो भी वे आस्रव बंध आदि से पृथक् प्रसिद्ध नहीं हैं इसलिए सात तत्त्वों में सर्व पदार्थ गर्भित हैं, यह कथन अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव दोष से दूषित नहीं है॥६४-६५॥ जीव तत्त्व से जीव द्रव्य वा जीव की पर्यायों का ही ग्रहण नहीं है जिससे जीव के पर्याय विशेष सम्यग्दर्शनादि का ग्रहण जीवतत्त्व के ग्रहण से नहीं होता हो। जीवतत्त्व से द्रव्य-पर्यायात्मक जीवतत्त्व का ग्रहण इष्ट है। इसलिए द्रव्यत्व न होते हुए भी रत्नत्रय का जीवतत्त्व में अन्तर्भाव होने का अभाव नहीं है। अर्थात् रत्नत्रय जीव स्वभाव में गर्भित है तथा रत्नत्रय के आस्रवत्व का अभाव भी असिद्ध है अर्थात् रत्नत्रय में आस्रवत्व भी सिद्ध है क्योंकि आगे के अध्यायों (छठे सातवें नवें) में रत्नत्रय के पुण्यास्रवत्व और संवरत्व का कथन करेंगे अर्थात् रत्नत्रय पुण्यास्रव एवं संवररूप है, ऐसा कहेंगे अतः रत्नत्रय का आस्रव आदि में अन्तर्भाव नहीं है, ऐसा नहीं है। जो भी जीव और अजीव के अनन्त प्रभेद हैं वे सब ही जीव के पुण्यागम के, पापागम के और पुण्य-पापागम के निरोध के कारण हैं तथा बन्ध और निर्जरा के हेतु भी हैं तथा मोक्षस्वभावरूप भी हैं। इन आस्रव आदि से भिन्न रत्नत्रय नहीं है, गति अन्तर का अभाव है। इस प्रकार रत्नत्रय आस्रव आदि से भिन्नता को प्राप्त नहीं होते अतः सात तत्त्वों में सर्व पदार्थों का संग्रह होता है इसमें अतिव्याप्ति, अव्याप्ति और असंभव दोष को दूर ही फेंक दिया है। इसलिए जीवादि सात तत्त्वों का प्रतिपादक सूत्र निर्दोष है और आप्त के द्वारा कहा हुआ है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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