________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *69 प्रमाणादिसूत्रे द्रव्यादिसत्रे वावधारणाभावादनध्यवसायविपर्ययजिज्ञासाद्यविनाभावविशेषणविशेष्यभावप्रागभावादयः संगृहीता एवेति सर्वसंग्रहे प्रमाणं तत्त्वं द्रव्यं तत्त्वमिति चोपदेशः कर्तव्यस्तत्रानवधारणादेव प्रमेयादीनां गुणादीनां वानध्यवसायादिवत्संग्रहोपपत्तेरित्याकुलत्वादनाप्तमूल एवायं प्रमाणाधुपदेशो द्रव्याधुपदेशो वा प्रकृत्याधुपदेशवत्॥ नन्वेवं सप्ततत्त्वार्थवचनेनाप्यसंग्रहात्। रत्नत्रयस्य तद्बाध्येप्ययुक्तत्वमितीतरे // 63 // न हि रत्नत्रयं जीवादिष्वंतर्भवत्यद्रव्यत्वादास्रवादित्वाभावाच्च / तस्य तत्त्वांतरत्वे कथं सप्तैव तत्त्वानि यतो जीवादिसूत्रेण सर्वतत्त्वासंग्रहात्, तदप्ययुक्तं न भवेदिति केचित्॥ प्रमाणादि (प्रमाण प्रमेय संशय प्रयोजन दृष्टान्त सिद्धान्तावयव तर्क निर्णय वाद जल्प वितण्डा हेत्वाभासच्छल जाति निग्रह स्थानानां तत्त्वज्ञानान्निश्रेयाधिगमः) न्याय दर्शन के इस सूत्र में और “द्रव्यादि धर्म-विशेष प्रसूताद् द्रव्य गुण कर्म सामान्य विशेष समवायानां पदार्थानां” इत्यादि सूत्र में तत्त्वों के अवधारणा (एवकार) का अभाव होने से नैयायिक और वैशेषिकों के अनध्यवसाय, विपर्यय, जिज्ञासा आदिक तथा अविनाभाव, विशेषण विशेष्य भाव, प्रागभाव प्रध्वंसाभाव आदि अभाव पदार्थों का संग्रह हो जाता है। इस प्रकार नैयायिक आदि 16 वा छह पदार्थों में सर्व पदार्थों का संग्रह करने पर तो प्रमाण तत्त्व वा द्रव्यतत्त्व इनमें से एक का ही उपदेश देना चाहिए। 16 या छह का नहीं। क्योंकि उन दोनों सूत्रों में एक ही तत्त्व के नियम करने रूप अवधारणा न होने से प्रमेय आदि का और गुणकर्मादि का संग्रह एक ही तत्त्व में हो जायेगा जैसे संशय आदि में अनध्यवसाय आदि का संग्रह हो जाता है अत: प्रमाणादि 16 तत्त्व हैं या द्रव्यादि छह तत्त्व हैं ऐसा कथन (उपदेश) करने वाले नैयायिक आदि दर्शनकार आकुलित होने से यह कथन अनाप्तमूल ही है, आप्त सर्वज्ञ का कहा हुआ नहीं है। जैसे कपिल ऋषि के द्वारा प्रतिपादित प्रकृति, महत्तत्त्व आदि 25 तत्त्व का उपदेश सत्य वक्ता आप्त के द्वारा प्रतिपादित नहीं है। इसलिए सर्वज्ञदेव द्वारा कथित सात तत्त्व का उपदेश ही वास्तविक है, अनाप्त के द्वारा कथित तत्त्व वास्तविक नहीं हैं। ___ शंका : यहाँ कोई विद्वान् कटाक्ष रूप शंका कर रहे हैं कि सर्वज्ञ द्वारा कथित सात तत्त्वार्थ वचन के द्वारा भी रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का संग्रह नहीं होता इसलिए सात तत्त्वों में सर्व पदार्थों का संग्रह हो जाता है, यह कथन बाधित होने से अयुक्त है, ठीक नहीं है॥६३॥ _द्रव्य नहीं होने से और आस्रव बंध आदि रूप न होने से रत्नत्रय जीवादि सात तत्त्वों में गर्भित नहीं होते अर्थात् रत्नत्रय न तो जीव, पुद्गल आदि द्रव्य रूप हैं और न आस्रवादि रूप हैं अत: इनका जीवादि सांत तत्त्वों में अन्तर्भाव नहीं होता। उन रत्नत्रय को तत्त्वान्तर (भिन्न तत्त्व) स्वीकार करने पर जीवादि सूत्र के द्वारा सर्व तत्त्वों का असंग्रह होने से 'जीवादि तत्त्व सात ही हैं' ऐसा घटित कैसे हो सकता है, जिससे तत्त्व सात ही हैं, ऐसा कहना अयुक्त असम्यक् न होवे। इस प्रकार किसी की शंका होने पर आचार्य कहते