________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 67 न ह्यभावः सर्वथा तुच्छ: प्रत्यक्षतोऽनुमानतो वा प्रतीयते यतोस्य सर्वदा भावविशेषणतया दर्शनमप्रसिद्ध स्यात् तत्प्रसिद्ध्यदभावस्य भावांशत्वं साधयति सितत्वादिवत् / ततो न क्वचिदवस्तुनि कस्यचिदसत्त्वप्रतीतिर्वस्तुन्येव तत्प्रतीतेस्तत्त्वांतराभावस्य सप्ततत्त्व विप्रकर्षभावस्य सिद्धेरन्यमतत्वासंभावनैवेति सर्वसंग्रहः॥ प्रमाणादय एव स्युः पदार्थाः षोडशेति तु। ब्रुवाणानां न सर्वस्य संग्रहो व्यवतिष्ठते // 54 // तत्रानध्यवसायस्य विपर्यासस्य वा गतेः। नास्याप्रमाणरूपस्य प्रमाणग्रहणाद्गतिः॥ 55 // संशीतिवत्प्रमेयांतर्भावे तत्त्वद्वयं भवेत् / संशयादेः पृथग्भावे पृथग्भावोस्य किं ततः॥ 56 // क्योंकि सर्वथा तुच्छाभाव (सर्वप्रकार से तुच्छ, निरुपाख्य स्वतंत्र) अभाव पदार्थ प्रत्यक्ष और अनुमान ज्ञान से प्रतीत (ज्ञात) नहीं होता है। जिससे कि इस अभाव का सदा भाव का विशेषण होकर दिखना अप्रसिद्ध असिद्ध हो अर्थात् अभाव स्वतंत्र दृष्टिगोचर नहीं होता है। भाव का विशेषण होकर ही दृष्टिगोचर होता है। अपितु शुक्ल आदि के समान भावरूप से प्रसिद्ध अस्तित्व अभाव के भावांशत्व (अस्तित्व अंश) को ही सिद्ध करता है। अत: किसी भी अवस्तु में किसी प्राणी को असत् (अभावत्व) की प्रतीति नहीं होती किन्तु वस्तु में ही असत्त्व की प्रतीति होती है अर्थात् अस्ति में ही नास्ति का बोध होता है, पृथक् नहीं। अत: तत्त्वान्तर के अभाव की सात तत्त्वों में ही विप्रकर्ष भाव से सिद्धि होती है अर्थात् अभावतत्त्व का भाव तत्त्व में ही समावेश हो जाता है। भाव से अतिरिक्त तत्त्व नहीं है। तथा अन्य मतों नैयायिक, वैशेषिकों के मन्तव्यानुसार माने गए तत्त्वों की संभावना तो है ही नहीं। इस प्रकार सभी वास्तविक तत्त्वों का इन सातों में ही संग्रह हो जाता है। .. जैनों के द्वारा माने गये सात तत्त्वों में तो सर्व पदार्थों का अन्तर्भाव हो जाता है। किन्तु प्रमाणादि सोलह पदार्थ हैं, इस प्रकार कहने वाले नैयायिकों के सर्व तत्त्वों का संग्रह नहीं होता॥५४॥ नैयायिकों ने प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रह स्थान ये 16 पदार्थ माने हैं। उनमें प्रमाण के ग्रहण करने से प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों का ही ग्रहण होता है। उस प्रमाण में अनध्यवसाय और विपर्यय ज्ञान की ज्ञप्ति नहीं हो सकेगी। क्योंकि अप्रमाण रूप अनध्यवसाय और विपर्यय ज्ञान का प्रमाण रूप ज्ञान में अन्तर्भाव नहीं होता॥५५॥ जैसे संशय ज्ञान का प्रमाण ज्ञान में अन्तर्भाव न होने से संशय ज्ञान को पृथक् स्वीकार किया है वैसे अनध्यवसाय और विपर्यय ज्ञान का अन्तर्भाव प्रमाण ज्ञान में नही हो सकता। यदि कहो कि प्रमेय तत्त्व में विपर्यय और अनध्यवसाय का अन्तर्भाव हो जायेगा तो प्रमाण और प्रमेय दो ही तत्त्व रहेंगे। सभी तत्त्व इन दो में गर्भित हो जायेंगे। यदि संशय, प्रयोजन आदि का पृथक् निरूपण करते हैं तो क्या विपर्यय और अनध्यवसाव के संशय आदि से भिन्नता है जिससे संशय, प्रयोजन आदि को पृथक् तत्त्व ग्रहण किया जाय और अनध्यवसाय, विपर्यय आदि को पृथक् ग्रहण न किया जावे॥५६॥