________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 66 जीवाजीवौ हि धर्मिणौ तद्धर्मास्त्वास्रवादय इति धर्मिधर्मात्मकं तत्त्वं सप्तविधमुक्तं मुमुक्षोरवश्यं श्रद्धेयत्वाद्विज्ञेयत्वादाध्येयत्वाच्च सम्यग्दर्शनज्ञानध्यानविषयत्वान्निर्विषयसम्यग्दर्शनाद्यनुपपत्तेस्तद्विषयांतरस्यासंभवात्। संभवे तत्रैवांतर्भावात्॥ न च तत्त्वांतराभावस्तत्त्वमष्टममासजेत् / सप्ततत्त्वास्तितारूपो ह्येषोऽन्यस्याप्रतीतितः॥ 49 // तत्त्वं सतश्च सद्भावोऽसतोऽसद्भाव इत्यपि। वस्तुन्येव द्विधा वृत्तिर्व्यवहारस्य वक्ष्यते॥५०॥ . यथा हि सति सत्त्वेन वेदनं सिद्धमंजसा। तथा सदंतरे सिद्धमसत्त्वेन प्रवेदनम् // 51 // असद्रूपप्रतीतिर्हि नावस्तुविषया क्वचित् / भावांशविषयत्वात् स्यात् सितत्वादिप्रतीतिवत् // 52 // भावांशोसत्सदाभावविशेषणतयेक्षणात् / सर्वथाभावनिर्मुक्तस्यादृष्टेः पाटलादिवत् // 53 // / इन सात तत्त्वों में जीव और अजीव ये दो तत्त्व तो धर्मी हैं और आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्षतत्त्व धर्म हैं। इस प्रकार दो धर्मी तत्त्व और पाँच धर्म तत्त्व के भेद से तत्त्व सात प्रकार के कहे हैं। मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा करने वाले मुमुक्षु को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्ध्यान (चारित्र) का विषय होने से इन सातों तत्त्वों का श्रद्धान, समीचीन ज्ञान और ध्यान अवश्य करना चाहिए क्योंकि ये ही श्रद्धेय हैं, ये ही ज्ञेय हैं और ये ही ध्येय हैं। सम्यग्दर्शन ज्ञान और ध्यान का विषय होने से निर्विषय (श्रद्धेय आदि विषय के बिना) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र की उत्पत्ति नहीं होती। तथा सम्यग्दर्शन आदि के विषय सात तत्त्व को छोड़कर अन्य नहीं हैं अर्थात् इन सात तत्त्वों को छोड़कर और कोई वस्तु श्रद्धान, ज्ञान और ध्यान करने योग्य नहीं है। यदि पुण्य पाप आदि अन्य किसी तत्त्व की संभावना हो तो वे सब इन सात तत्त्वों में ही गर्भित हो जाते है। अतः इन सात तत्त्वों से भिन्न अन्य तत्त्वों के मानने की आवश्यकता नहीं है तथा अन्य तत्त्व की प्रतीति भी नहीं होती है। तत्त्वान्तराभाव (सात तत्त्वों के सिवाय अभाव) रूप आठवाँ तत्त्व भी प्रतीत नहीं होता है क्योंकि तत्त्वान्तरों का अभाव भी सात तत्त्वों के अस्तित्व रूप है, इन सात तत्त्वों के अस्तित्व रूप से भिन्न अभाव प तत्त्व की प्रतीति नहीं होती॥४९॥ सत् पदार्थ के सदभाव को तत्त्व कहते हैं तथा असत् पदार्थ का असद्भाव भी तत्त्व है। अर्थात् एक ही पदार्थ अपने स्वरूप से सत् और पर पदार्थ की अपेक्षा असत् रूप है। सत् से भिन्न स्वतन्त्र असत्पदार्थ नहीं है। सत् स्वरूप वस्तु में ही है। एक ही सत् स्वरूप वस्तु में सत् और असत्रूप दोनों प्रकार के व्यवहार की प्रवृत्ति कही जाती है, देखी जाती है॥५०॥ .. जिस प्रकार सत् पदार्थ में सत्त्व रूप से ज्ञान होना निर्दोष सिद्ध होता है, उसी प्रकार असत् रूप पदार्थ का असत् रूप से ज्ञान होना भी सिद्ध है॥५१॥ अर्थात् एक ही वस्तु स्वरूप से सत् और पर स्वरूप से असत् है क्योंकि कहीं पर भी असद्प पदार्थ की प्रतीति अवस्तु का विषय नहीं करती है। किन्तु शुक्ल आदि प्रतीति के समान असत् की प्रतीति भी भाव के अंशों का ही विषय करती है। अर्थात् जैसे शुक्ल आदि की प्रतीति सत् स्वरूप है उसके साथ पीला आदि नहीं है, इस असत् की प्रतीति भी भाव रूप ही है॥५२॥ सत् रूप भावांश भी सदा अभाव विशेषण से युक्त देखा जाता है। क्योंकि गुलाबी आदि रंग के समान सर्वथा अभाव से रहित सत् दृष्टिगोचर नहीं होता। अर्थात् जैसे लाल, पीला आदि रंग नास्ति के बिना नहीं रहते। (लाल है पीला नहीं हैं ऐसे अस्ति-नास्ति दोनों रूप है) वैसे ही प्रत्येक वस्तु अस्ति-नास्ति रूप है, अस्ति नास्ति विशेषण सहित है और नास्ति अस्ति विशेषण सहित है। अस्ति के बिना नास्ति और नास्ति के बिना अस्ति नही रहती है॥५३॥ 1. जीव और अजीव द्रव्यस्वरूप हैं वा पर्यायी हैं। आस्रव आदि पाँच तत्त्व जीव और अजीव की पर्याय हैं।