________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 65 न हि प्रधानस्यैव धर्मो बंध: संभवति तस्य द्विष्ठत्वादिति। जीवस्यापि धर्मः सोवधार्यते सर्वथा पुरुषस्य बंधाभावे बंधफलानुभवनायोगाद्वंधवत् प्रकृतिसंसर्गाद्वंधफलानुभवनं तस्येति चेत् , स एव बंधविवर्तात्मिकया प्रकृत्या संसर्गः पुरुषस्य बंधः। इति सिद्धः कथंचित्पुरुषधर्मः संसर्गस्य द्विष्ठत्वात् // संवरो जीवधर्मः स्यात् कर्तृस्थो निर्जरापि च। मोक्षश्च कर्मधर्मोपि कर्मस्थो बंधवन्मतः॥ 47 // धर्मिधर्मात्मकं तत्त्वं सप्तभेदमितीरितम् / श्रद्धेयं ज्ञेयमाध्येयं मुमुक्षोर्नियमादिह // 48 // अकेले प्रधान का बंध तत्त्व धर्म संभव नहीं है क्योंकि बंध तत्त्व के द्विष्ठता है अर्थात् बंध तत्त्व दो पदार्थों में रहता है, एक पदार्थ के बंध नहीं होता। जीव और अजीव दो पदार्थों में बंध होने से बंध तत्त्व जीव का भी धर्म है ऐसा निश्चय करना चाहिए। सर्वथा पुरुष के (आत्मा के) बंध का अभाव मान लेने पर बंध तत्त्व के फल का अनुभव करने का भी अयोग होगा अर्थात् आत्मा कर्मबंध के फल का अनुभव भी नहीं करेगा। वा सांसारिक भोगों का भोक्ता भी आत्मा नहीं बनेगा। ... बंध के समान प्रकृति के संसर्ग से आत्मा को बंध के फल का अनुभव होता है, ऐसा कहने पर तो हम कहेंगे कि बंध की पर्यायात्मक प्रकृति का संसर्ग ही आत्मा का बंध है। अर्थात् प्रकृति के साथ आत्मा का संसर्ग होना ही बंध है; इस प्रकार सिद्ध हुआ कि संसर्ग रूप बंध पदार्थ कथंचित् पुरुष (आत्मा) का धर्म है, क्योंकि संसर्ग (बंध) दो पदार्थों में रहता है एक में नही। अत: बंध तत्त्व की सिद्धि होती है। जैनाचार्यों ने बंध दो प्रकार का कहा है द्रव्य बंध और भावबंध / जीव के जिन भावों (रागद्वेषमय परिणति) से कर्म बँधते हैं वह भाव बंध है तथा जो पुद्गल वर्गणा आत्मप्रदेशों पर स्थित होती है वह द्रव्य बंध है। द्रव्यबंध और भाव बंध का परस्पर निमित्त नैमित्तिक संबंध है। जीव और पुद्गल (अजीव) दोनों की सिद्धि होने पर बंध की सिद्धि होती है तथा बंध सर्व प्राणियों के संवेदन में आ रहे हैं, सारे प्राणियों को सुखदुःख से उनका अनुभव हो रहा है अत: बंध न अकेले प्रधान का गुण है और न अकेले जीव का, अपितु दोनों का निमित्त नैमित्तिक संबंध है। ___कर्ता आत्मा में स्थित होने से संवरतत्त्व, निर्जरा तत्त्व और मोक्ष तत्त्व आत्मा का धर्म, आत्मा का ही परिणाम है तथा बंध के समान कर्म मे स्थित होने से संवर निर्जरा और मोक्ष कर्म (पुद्गल) का धर्म (परिणाम) भी है। अर्थात् जैसे बंध और आस्रव द्विष्ठ हैं जीव और पुद्गल दोनों में होते हैं उसी प्रकार संवर और निर्जरा भी पुद्गल और आत्मा इन दोनों में होते हैं; द्रव्य संवर, द्रव्य निर्जरा और द्रव्य मोक्ष पौद्गलिक हैं। अतः अकेले आत्मा या पुद्गल के आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष नहीं होता॥४७॥ इस प्रकार धर्मी और धर्म स्वरूप तत्त्व के सात भेद कहे हैं अत: यहाँ मोक्ष के इच्छुक मनुष्यों को इन सातों तत्त्वों का श्रद्धान और समीचीन ज्ञान करना चाहिए। तथा इन्हीं सात तत्त्वों का भली प्रकार ध्यान करना चाहिए, आचरण करना चाहिए॥४८॥