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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 64 न च कालाणुः स्याद्वादिनां कतिपयप्रदेशव्यापिद्रव्यं यतस्तेन हेतोर्व्यभिचारः। कालादन्यत्वे सत्यसर्वगतद्रव्यत्वादिति स्पष्टं साधनव्यभिचारि वाच्यमिति चेन्न किंचिदनिष्टमीदृगर्थस्य हेतोरिष्टत्वात्। परेषां तु कालस्य सर्वगतद्रव्यत्वेनाभिप्रेतत्वात्तेन व्यभिचारचोदनस्यासंभवाद्वार्तिके तथा विशेषणाभावः। एवं च निरवद्यात्साधनादात्मनः क्रियावत्त्वसिद्धः कायादिक्रियारूपोऽस्यास्रवः प्रसिद्ध्यत्येव / कायालंबनाया जीवप्रदेशपरिस्पंदनक्रियायाः कायास्रवत्वाद्वागालंबनाया वागाश्रयत्वान्मनोवर्गणालंबनाया मानसाश्रयत्वात्॥ बंधः पुंधर्मतां धत्ते द्विष्ठत्वान्न प्रधानके। केवलेऽसंभवात्तस्य धर्मोसौ नावधार्यते // 46 // __ स्याद्वादियों के मत में एक ही प्रदेश में रहने वाला कालद्रव्य (कालाणु) कतिपय प्रदेश अंसख्यात संख्यात प्रदेश व्यापी नहीं है। जिससे उस काल के द्वारा असर्वगतद्रव्यपने हेतु का व्यभिचार आसकता हो। काल द्रव्य से अन्य होने पर (असर्वगत द्रव्य होने से) असर्वगत द्रव्य है, इस प्रकार व्यभिचार दोषों से रहित हेतु है ऐसा भी नहीं कहना चाहिए। अर्थात् जो काल से भिन्न द्रव्य है वह असर्वगत है। ऐसा स्पष्ट रूप से मानना चाहिए, ऐसा भी कहने पर आचार्य कहते हैं- कि ऐसा मानना हमारे अनिष्ट नहीं है, काल द्रव्य से. भिन्न द्रव्य भी असर्वगत है ऐसा मानना हम को भी इष्ट है अर्थात् जो काल से अभिन्न अव्यापक द्रव्य हैं वे क्रियावान हैं इस प्रकार हेतु का अर्थ हमको भी इष्ट है। नैयायिक और वैशेषिकों के मत में काल द्रव्य को सर्व व्यापक द्रव्यत्व स्वीकार किया गया है इसलिए उस काल से व्यभिचार (दोष) देने की उनके द्वारा प्रेरणा करना असंभव है। अर्थात् सर्वगत काल को मानकर आत्मा को अक्रियावान सिद्ध करना असंभव . है। इसलिए ही इस सूत्र की 45 वीं वार्त्तिक में कालभिन्नत्व विशेषण नहीं दिया है। केवल असर्वगत द्रव्य होने से आत्मा में क्रिया को सिद्ध कर लिया है। अत: आत्मा में देश से देशान्तर को प्राप्त होने रूप क्रिया होती है। इस प्रकार निर्दोष हेतु से आत्मा के क्रियावान की सिद्धि हो जाने से इस आत्मा के शरीर, वचन और मन की क्रियारूप आस्रव तत्त्व सिद्ध होता ही है। अत: काय के अवलम्बन से (वा स्थूल एवं सूक्ष्म शरीर के उपयोगी आहार वर्गणा तथा कार्माण वर्गणा का अवलम्बन लेकर) उत्पन्न हुई आत्मा के प्रदेशों की कम्प रूप क्रिया को कायास्रव कहते हैं, वचन वर्गणा के आलम्बन से उत्पन्न जीव प्रदेशों के परिस्पन्दन रूप क्रिया को वचन वाग् आस्रव कहते हैं और मनोवर्गणाओं का अवलम्बन लेकर उत्पन्न हुई आत्मप्रदेशों के कम्पन रूप क्रियाओं को मानस आस्रव कहते हैं। अत: आस्रव तत्त्व की सिद्धि होती है। आस्रव भी द्रव्यास्रव और भावास्रव के भेद से दो प्रकार का है। आत्मा के जिन भावों के द्वारा कर्म आते हैं वे भाव भावास्रव हैं और पुद्गल वर्गणाओं का आना द्रव्यास्रव है। यह आस्रव भी आत्मा और पुद्गल दोनों के होने पर ही सिद्ध होता है। बन्ध तत्त्व का वर्णन : बन्ध आत्मा के धर्म को धारण करता है क्योंकि बन्ध दो पदार्थों में होता है, अकेले प्रधान में उस बंध का रहना असंभव है। इसलिए यह बंध तत्त्व प्रधान का धर्म है ऐसी अवधारणा नहीं की जा सकती। अर्थात् पुद्गल और जीव इन दोनों का धर्म ‘बंध तत्त्व' है, अकेले पुद्गल (प्रकृति) का नहीं है॥४६॥
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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