________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 63 कालात्मसर्वगतत्वासाधनं, लोकाकाशप्रदेशेषु प्रत्येकमेकैकस्य कालाणोरवस्थानाद्रत्नराशिवत् कालाणवोऽसंख्याता: स्वयं वर्तमानानामर्थानां निमित्तहेतव इत्यागमविरुद्धं पक्षं च। न चायमागमोप्रमाणं सर्वथाप्यसंभवद्बाधकत्वादात्मादिप्रतिपादकागमवत् / तत: सिद्धमसर्वगतद्रव्यत्वमात्मनः क्रियावत्त्वं साधयत्येव / कालाणुनानैकांतिकमिति चेन्न, तत्रासर्वगतद्रव्यत्वस्याभावात्। सर्वगतद्रव्यत्वप्रतिषेधे हि तत्सदृशेन्यत्र सकृन्नानादेशसंबंधिनि संप्रत्ययो न पुनर्निरंशे कालाणौ। 'नञिव युक्तमन्यसदृशाधिकरणे तथा ह्यर्थगतिरिति वचनात्, प्रसह्यप्रतिषेधानाश्रयणात् / असंख्येयभागादिषु जीवानामिति जीवावगाहस्य नानालोकाकाशप्रदेशवर्तितया वक्ष्यमाणत्वात्। तथा च कतिपयप्रदेशव्यापिद्रव्यत्वादिति हेत्वर्थः प्रतिष्ठितः। है। इस प्रकार परस्पर विरुद्ध अनेक क्रियाओं के निमित्तपना होते हुए पृथ्वी, जल, तेज और वायु का एक समय में उपलम्भ (प्रत्यक्ष) किया जा रहा है। तथा पृथ्वी आदि रूप दृष्टान्त नाना द्रव्यपना रूप साध्य धर्म से विकल (रहित) भी नहीं हैं। क्योंकि उन पृथ्वी आदिक के कथञ्चित् नाना द्रव्यत्व की सिद्धि होती है। अर्थात् जैसे अवयव एवं अवयवी रूप से पृथ्वी आदि में अनेकत्व है वैसे ही काल द्रव्य और आत्मा में अनेकत्व सिद्ध है। इस प्रकार काल द्रव्य और आत्मा को सर्वगत सिद्ध करने का साधन अनुमान विरुद्ध पक्ष है। क्योंकि रत्नों की राशि के समान लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में एक-एक कालाणु अवस्थित है। वे कालाणु असंख्यात, लोक प्रमाण हैं क्योंकि अपनी द्रव्य शक्ति के द्वारा स्वयं अपने आप वर्तना करते हुए नाना पदार्थों के कालाणुद्रव्य वर्तना कराने में निमित्त कारण होते हैं। इस आगम प्रमाण से भी आपके द्वारा माना गया काल के व्यापकपने का पक्ष आगमविरुद्ध पड़ता है और यह आगम वाक्य अप्रमाण भी नहीं है क्योंकि आत्मा, आकाश आदि के प्रतिपादक आगम के समान इसमें भी सर्वप्रकार से बाधक प्रमाणों की असंभवता है। इसलिए आत्मा के असर्वगत द्रव्यत्व सिद्ध है वह आत्मा की क्रियावत्व शक्ति को सिद्ध करता ही है। - आत्मा असर्वगत होने से क्रियावान है, यह कहने पर असर्वगत हेतु का कालाणु के साथ व्यभिचार आता है (अर्थात् कालाणु असर्वगत तो है परन्तु क्रियावान नहीं है) ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि उस कालाणु में असर्वगत द्रव्यत्व के सर्वगतत्व का निषेध किया है। असर्वगत द्रव्यत्व हेतु से व्यापक द्रव्यत्व का अभाव किया है। अत: सर्व व्यापक द्रव्यत्व का निषेध करने पर उसके सदृश अन्यत्र एक साथ नाना देशों में संबंध करने वाले पदार्थों में ज्ञान होता है किन्तु सर्वथा निरंश कालाणु में एक साथ नाना देश संबंधी पदार्थों का ज्ञान नहीं होता। यहाँ पर असर्वगत में जो 'नञ् समास है उसका अर्थ प्रसज्य (सर्वथा अभाव) नहीं है अपितु उससे भिन्न उसके सदृश पदार्थों का ग्रहण करने वाला पर्युदास (अपवाद) है। __ इसी तत्त्वार्थ सूत्र ग्रन्थ के पाँचवें अध्याय में “असंख्येयभागादिषु जीवानां' इस सूत्र से एक जीव कितना ही छोटा होगा तो भी घनांगुल के असंख्यातवें भाग रूप असंख्यात प्रदेशों को अवश्य घेर लेता है इससे कम संख्यात प्रदेशों में जीव नहीं रह सकता। अत: जीव की अवगाहना की नाना (असंख्यात) लोकाकाश प्रदेशों में वर्तना है, ऐसा आगे कहेंगे। और ऐसा होने पर काल और आत्मा कतिपय प्रदेश व्यापी द्रव्य हैं, यह अर्थ सिद्ध होता है। अर्थात् न तो आत्मा एक प्रदेश में रहता है और न सर्वगत है अपितु असंख्यात प्रदेशों में रहता है ऐसा सिद्ध होता है।