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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *61 आत्माऽमूर्तत्वादाकाशवदित्येतद्बाधकमिति चेन्न, अस्य प्रतिवादिनां कालेनानेकांतात् / कालोपि सर्वगतस्तत एव तद्वदिति नात्र पक्षस्यानुमानागमबाधितत्वम्। तथाहि। आत्मा कालश्चासर्वगतो नानाद्रव्यत्वात् पृथिव्यादिवत्। कालो नानाद्रव्यत्वेनासिद्ध इति चेन्न, युगपत्परस्परविरुद्धनानाद्रव्यक्रियोत्पत्तौ निमित्तत्वात्तद्वत्। खेन व्यभिचारीदं साधनमिति चेन्न, तस्यावगाहनक्रियामात्रत्वेन प्रसिद्धस्तत्रानिमित्तत्वात्। निमित्तत्वे वा परिकल्पनानर्थक्यात् तत्कार्यस्याकाशादेवोत्पत्तिघटनात् परापरत्वपरिणामक्रियादीनामाकाशनिमित्तकत्वविरोधादवगाहनवत् परापरयौगपद्यायौगपद्यचिरक्षिप्रप्रत्ययलिंगः कालोन्य एवाकाशादिति चेत् , स्यादेवं यदि परत्वादिप्रत्ययनिमित्तत्वमाकाशस्य विरुध्येत। शब्दलिंगत्वादाकाशस्य तन्निमित्तत्वं विरुध्यत एवेति चेन्न, नहीं है। क्योंकि इस अमूर्ति हेतु का प्रतिवादी जैनों के द्वारा माने गए काल द्रव्य के साथ अनेकान्त दोष आता है अर्थात् काल अमूर्तिक होते हुए भी सर्वगत नहीं है। अमूर्तिक का असर्वगत होने में कोई विरोध नहीं है; क्योंकि काल अमूर्तिक है परन्तु सर्वगत नहीं है। काल भी सर्वगत है अमूर्तिक होने से आकाश के समान, ऐसा भी कहना युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि काल को सर्वगत मानना यह पक्ष, अनुमान और आगम से बाधित है। तथाहि आत्मा और काल दोनों ही असर्वगत हैं नाना द्रव्य होने से पृथ्वी आदि के समान। काल नाना द्रव्यत्व से असिद्ध है अर्थात् काल नाना द्रव्यस्वरूप नहीं है, ऐसा भी कहना उचित नहीं है; क्योंकि एक ही समय में परस्पर विरुद्ध अनेक द्रव्यों की क्रियाओं की उत्पत्ति में निमित्त कारण होने से काल द्रव्य में नानात्व है जैसे पृथ्वी आदि द्रव्य। अर्थात् एक ही समय में भिन्न-भिन्न द्रव्यों में भिन्न परिवर्तन होता है अतः काल भिन्न-भिन्न है। यदि काल द्रव्य प्रत्येक प्रदेश पर भिन्न नहीं है तो सर्व द्रव्यों का परिणमन एक समान होता, परन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि सर्व द्रव्यों का परिवर्तन भिन्न-भिन्न हो रहा है। काल द्रव्य का अनेकपना सिद्ध करने के लिए दिया गया एक समय में अनेक विरुद्ध क्रियाओं के करने का सहकारी कारण हेत आकाश के साथ व्यभिचारी है, क्योंकि आकाश एक होते हुए भी अनेक पदार्थों को एक साथ अवगाहन देता है, ऐसा कहना उपयुक्त नहीं है क्योंकि आंकाश के केवल अवगाहन क्रिया का ही निमित्तपना प्रसिद्ध है। काल के द्वारा की गयी अनेक विरुद्ध क्रियाओं में आकाश निमित्त कारण नहीं है, क्योंकि आकाश को द्रव्यपरिवर्तन में निमित्त मान लेने पर काल द्रव्य की परिकल्पना व्यर्थ होती है। क्योंकि काल द्रव्य के निमित्त से होने वाले कार्यों की आकाश द्रव्य से ही उत्पत्ति होना घटित हो जायेगा। अर्थात् अवगाहन देने के समान आकाश परिवर्तन भी करायेगा परन्तु परापरत्व परिणाम और क्रिया आदि का आकाश को निमित्त मानना विरुद्ध है अवगाहन के समान अर्थात् जैसे अवगाहन देना आकाश का काम है वैसा परिणमन कराना नहीं। ... काल कृत परत्व अपरत्व युगपत् , क्रम, अतिविलम्ब और शीघ्र का ज्ञान होना है चिह्न जिसका ऐसा काल आकाश से भिन्न है। ऐसा कहने पर आचार्य कहते हैं कि ऐसा तो तब सिद्ध होता है जब परत्व, अपरत्व युगपत्-अयुगपत् आदि ज्ञान के निमित्तत्व को आकाश के विरुद्ध माना जावे। परन्तु आप तो आकाश के द्वारा अनेक क्रियाओं का होना स्वीकार करते हैं। आकाश शब्द का लिंग (कारण) है अत:
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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