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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 60 न स्यात्। प्रायेण दत्तोत्तरं च चेतनस्याद्रव्यांतरत्ववचनमिति न जीवमंतरेण स्वार्थजीवसाधनमुपपद्यते / एतेन स्मृतिप्रत्यभिज्ञानानुमानादिकं गौणपृथिव्याद्यजीवसाधनं स्वार्थं जीवमंतरेणानुपपन्नमिति निवेदितं, तस्यापि चेतनद्रव्यस्वरूपत्वाविशेषात् प्रधानादिरूपतया तस्य प्रतिविहितत्वात्। न कायादिक्रियारूपो जीवस्यास्त्यासवः सदा। नि:क्रियत्वाद्यथा व्योम्न इत्यसत्तदसिद्धितः॥४४॥ क्रियावान् पुरुषोसर्वगतद्रव्यत्वतो यथा। पृथिव्यादिः स्वसंवेद्यं साधनं सिद्धमेव नः // 45 // न हि क्रि यावत्त्वे साध्ये पुरुषस्यासर्वगतद्रव्यत्वं साधनमसिद्धं तस्य स्वसंवेद्यत्वात् पृथिव्यादिवत्भ्रांतमसर्वगतद्रव्यत्वेनात्मनः संवेदनमिति चेत् न, बाधकाभावात् / सर्वगत पूर्व में कर दिया है। पूर्व में इसका उत्तर दिया ही है कि जीव के बिना, स्वार्थ के लिए जीव की साधना वा सिद्धि नहीं हो सकती। तथा जीवतत्त्व को स्वीकार किये बिना अपने लिए अज़ीव पदार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती। "स्मृति प्रत्यभिज्ञान अनुमान तर्क आदि भी गौण रूप से पृथ्वी आदि अजीवतत्त्व की पर्याय हैं" ऐसा कहने वालों का भी इस हेतु से खण्डन कर दिया है क्योंकि परमार्थभूत जीव तत्त्व स्वीकार किये बिना अजीव सिद्धि अपने लिए अपने आप नहीं हो सकती अत: अविशेषता (सामान्यता) से स्मृति आदि के चेतनपना है अर्थात् स्मृति आदि जीव के स्वात्मभूत स्वभाव हैं। स्मृति आदि प्रधान के गुण हैं इसका खण्डन कर दिया है। अर्थात् स्मृति आदि अचेतन प्रधान के गुण नहीं हैं अपितु चेतन आत्मा के ज्ञान गुण की पर्याय है। .. इस प्रकार जीवतत्त्व और अजीवतत्त्व का वर्णन किया। अब आस्रव तत्त्व का वर्णन करते हैं। आत्मा के असर्वगत द्रव्यत्व सिद्ध है कपिल का मत - जीव के कायादि क्रियारूप, मन वचन काय की क्रियारूप आस्रव सदा (कभी) संभव नहीं है, क्योंकि आत्मा निष्क्रिय है। जो निष्क्रिय होता है उसके कर्म का आस्रव नहीं होता जैसे आकाश के। यह कपिल का मत है। आचार्य कहते हैं- ऐसा कहना उपयुक्त नहीं है क्योंकि आत्मा के क्रिया रहित-पने की असिद्धि है॥४४॥ जैसे आत्मा क्रियावान है असर्वगत होने से पृथ्वी आदि द्रव्य के समान। इसमें दिया गया हमारा अव्यापकत्व हेतु स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से सिद्ध ही है अर्थात् आत्मा अपनी काय प्रमाण छोटा बड़ा होने से व्यापक नहीं है अत: क्रियावान है और क्रियावान होने से सास्रव है। (आस्रवसहित है।) पुरुष के क्रियावानपना सिद्ध करने में दिया गया असर्वगत द्रव्यत्व हेतु असिद्ध नहीं है क्योंकि पृथ्वी आदि के समान आत्मा के भी अव्यापकपना स्वसंवेद्यत्व है। अर्थात् आत्मा का अव्यापकपना स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है॥४५॥ आत्मा का असर्वगत द्रव्यत्व से संवेदन (ज्ञान) होता है वह भ्रान्त है (अवास्तविक है।) ऐसा कहना उचित नहीं है; क्योंकि आत्मा के असर्वगतपने में बाधक प्रमाण का अभाव है। आत्मा सर्वगत है अमूर्तिक होने से आकाश के समान, यह हेतु आत्मा के असर्वगतत्व का बाधक है, ऐसा भी कहना उचित
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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