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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 59 सुवर्णरूप्यवद्विजातीयत्वेपि तद्भावः स्यादिति चेन्न, तयोः पार्थिवत्वेन सजातीयत्वात् लोहत्वादिभिश्च तर्हि चेतनयोः सत्त्वादिभिः सजातीयत्वात्तद्भावो भवत्विति चेन्न भवतो जलानलाभ्यामने कान्तात् / तयोरद्रव्यान्तरत्वात्तद्भाव इति चेन्न, असिद्धत्वात्। तयोरपि द्रव्यांतरत्वस्य निर्णयात्तद्भावायोगात्। निर्णेष्यते हि लक्षणभेदाच्चेतनाचेतनयोर्द्रव्यांतरत्वमिति न तयोर्विवर्तविवर्तिभावो येन चेतनात्मकं प्रत्यक्षं जीवद्रव्यस्वरूपं का (भाव का) विरोध आता है अर्थात् अचेतन की पर्याय चेतन नहीं हो सकती क्योंकि वे परस्पर भिन्न जाति वाले हैं, जैसे जल और अग्नि। (जैसे तुम्हारे जलतत्त्व और अग्नितत्त्व भिन्न हैं।) यद्यपि जैन अग्नि और जल को एक ही तत्त्व मानते हैं परन्तु चार्वाक की अपेक्षा वर्णन किया है। चेतन और अचेतन पदार्थों में उपादान उपादेय भाव नहीं है अर्थात् अचेतन पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, चेतन (जीव) रूप परिणमन नहीं कर सकते। जैसे सुवर्ण और रूपा चांदी में विजातीय होने पर भी परिणाम परिणामी भाव होता है (अर्थात् चांदी सोना एक हो जाते हैं) उसी प्रकार पृथ्वी आदि अजीव तत्त्व भी जीव रूप परिणत हो जाता है, ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि सोना और रूपा में पार्थिवत्व रूप से सजातीय होने से रूपा धातु सोना बन जाता है। जैसे लोहत्व आदि। मेदिनी कोश के अनुसार चांदी सोना आदि सर्व धातु लोहा कहलाता है अत: सुवर्ण और तांबे का चांदी में पृथ्वीकायत्व की अपेक्षा सजातीयत्व होने से उनमें उपादान उपादेय भाव बन जाता है परन्तु विजातीय होने से चेतन और अचेतन में उपादान उपादेय भाव नहीं बनता। चेतन और अचेतन में भी सत्त्वादि की अपेक्षा सजातीयत्व होने से तद्भाव परिणाम परिणामी भाव हो जाता है, ऐसा भी कहना उचित नहीं है.. क्योंकि ऐसा मानने पर आपके जल और अग्नि में भी अनेकान्त होगा-अर्थात् चार तत्त्व न रहकर एक तत्त्व हो जायेंगे। परन्तु आप जल और अग्नि में सजातीयत्व होते हुए भी उपादेय उपादान भाव नहीं मानते हैं। वैसे ही चेतन और अचेतन में उपादान उपादेय भाव नहीं है अर्थात् महासत्ता की अपेक्षा सर्वद्रव्य एक हैं परन्तु अवान्तर सत्ता की अपेक्षा छहों द्रव्य भिन्न-भिन्न हैं वे एक दूसरे का उपादान उपादेय नहीं बन सकते। चेतन और अचेतन में भिन्न द्रव्यपना नहीं है इसलिए दोनों में परिणाम परिणामी भाव बन जायेगा ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि चेतन और अचेतन में एकत्वपना असिद्ध है। चेतन और अचेतन में भी द्रव्यान्तरत्व का निर्णय (निश्चय) है अत: उन चेतन अचेतन में विवर्त्त विवर्ती भाव परिणाम-परिणामी भाव का अयोग है अर्थात् चेतन और अचेतन परस्पर एक दूसरे के साथ परिणमन नहीं कर सकते। लक्षण के भेद से चेतन और अचेतन में भिन्न द्रव्य-तत्त्वपना है इसका निर्णय आगे करेंगे इसलिए चेतन और अचेतन में विवर्त्त विवर्त्ति भाव नहीं है। जिससे चेतनात्मक प्रत्यक्ष जीव द्रव्य स्वरूप न होगा। अर्थात् चेतनात्मक द्रव्य स्वतंत्र सिद्ध है। जीव पृथ्वी आदि अजीव से भिन्न द्रव्यान्तर है, इस प्रकार का वर्णन
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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