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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 58 न केवलं प्रतिपादकस्य शरीरं लिप्यक्षरादिकं वा परप्रतिपत्तिसाधनं वचनवत् साक्षात् परसंवेद्यत्वादजीवात्मकं / किं तर्हि ? बाडेंद्रियग्राह्यत्वाच्च / जीवात्मकत्वे तदनुपपत्तेरिति सूक्तं परार्थसाधनान्यथानुपपत्तेरजीवास्तित्वसाधनम्॥ योपि ब्रूते पृथिव्यादिरजीवोध्यक्षनिश्चितः। तत्त्वार्थ इति तस्यापि प्रायशो दत्तमुत्तरम् // 43 // अस्ति जीव: स्वार्थाजीवसाधनान्यथानुपपत्तेः पृथिव्यादिरजीव एव तत्त्वार्थ इति न स्वयं साधनमंतरेण निश्चेतुमर्हति कस्यचिदसाधनस्य निश्चयायोगात्। सत्त्वात्तथा निश्चय इति चेत् न, तस्याचेतनत्वात् चेतनत्वे तत्त्वांतरत्वसिद्धेस्तस्यैव जीवत्वोपपत्तेः। स्यान्मतमजीवविवर्तविशेषश्चेतनात्मकं प्रत्यक्षं न पुनर्जीव इति / तदसत्। चेतनाचेतनात्मकयोर्विवर्तविवर्तिभावस्य विरोधात् परस्परं विजातीयत्वाजलानलवत् / वचन के समान दूसरों के प्रतिपत्ति (समझाने) का साधन प्रतिपादक का शरीर, लिपि, अक्षर, संकेत आदि केवल परसंवेद्य होने से ही अजीवात्मक नहीं है तो कैसे अजीव हैं? अपितु बाह्येन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य होने से भी अजीव हैं। शब्द के जीवात्मकत्व होने पर बाह्येन्द्रिय के द्वारा ग्राह्यता नहीं हो सकती। इस प्रकार दूसरों के लिए जीव तत्त्व को सिद्ध करना अजीव तत्त्व को स्वीकार किये बिना नहीं हो सकता ऐसा कहना उचित ही है। इस प्रकार अजीव तत्त्व की सिद्धि होती है अर्थात् अजीवतत्त्व के बिना ब्रह्माद्वैत की भी सिद्धि नहीं होती है क्योंकि ब्रह्माद्वैत का प्रतिपादन करने के लिए अजीवात्मक वचन का आश्रय लेना पड़ता है। जो कहता है (चार्वाक) कि प्रत्यक्ष प्रमाण से निश्चित पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु अजीव ही तत्त्वार्थ हैं जीव नामक कोई तत्त्व नहीं है ; इस प्रकार कथन करने वाले को भी प्राय:कर उत्तर दे चुके हैं या जीव की सिद्धि करते समय उसका खण्डन कर दिया है अर्थात् आत्मसिद्धि करते समय अनात्म का खण्डन किया है॥४३॥ __ अनुमान से जीवतत्त्व की सिद्धि करते हैं - जीव तत्त्व है - क्योंकि जीवतत्त्व के बिना अपने लिए अजीवतत्त्व की सिद्धि नहीं हो सकती। पृथ्वी आदि अजीव ही तत्त्वार्थ हैं, इस प्रकार की सिद्धि साधन के बिना निश्चय करने के योग्य नहीं है क्योंकि किसी भी वस्तु का साधन (हेत) के बिना निश्चय नहीं होता अर्थात् आत्म तत्त्व के बिना अजीव तत्त्व की सिद्धि नहीं होती। सत्त्व हेतु से पृथ्वी आदिक अजीव तत्त्व की सिद्धि होती है ऐसा भी कहना उचित नहीं है क्योंकि सत्ता अचेतन है और अचेतन से अचेतन की सिद्धि होती नहीं है। तथा सत्ता को चेतनत्व स्वीकार कर लेने पर तत्त्वान्तर चेतन पदार्थ की सिद्धि होती है अर्थात् पृथ्वी जल अग्नि और वायु इन चार तत्त्वों से भिन्न चेतनतत्त्व पाँचवाँ सिद्ध होता है। उसी चेतन पदार्थ के युक्ति से जीवतत्त्व की सिद्धि होती है। अर्थात् जीवतत्त्व के सिद्ध होने पर ही अजीव तत्त्व की सिद्धि होती है, अजीव पदार्थ की स्वयं सिद्धि नहीं होती है। चेतन स्वरूप प्रत्यक्ष प्रमाण अजीव द्रव्य की पर्याय है, भिन्न जीव नहीं हैं, ऐसा भी कहना उचित नहीं है, क्योंकि चेतन और अचेतन स्वरूप पदार्थों के विवर्त और विवर्ती (परिणाम और परिणामी) पने
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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