SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 57 सिद्धेः / यदि पुनरविद्याप्रभेदात्तथा विभागस्तदा साप्यविद्या प्रतिपादकगता कथं प्रतिपाद्यादिगता न स्यात्? तद्गता वा प्रतिपादकगता तदभेदेपीति साश्चर्यं नश्चेतः। प्रतिपादकगतेयमविद्या प्रतिपाद्यादिगतेयमिति च विभागसंप्रत्ययोनाद्यविद्याकृत एवेति चेत्, किमिदानीं सर्वोप्यविद्याप्रपंचः। सर्वात्मगतस्तत्त्वोस्तु सोप्यविद्यावशात्तथेति चेत् , तर्हि तत्त्वतो न क्वचिदविद्याप्रपंच इति न तत्कृतो विभागः / परमार्थतः एव प्रतिपादिकादिजीवविभागस्य सिद्धेः। ततो नैकात्मव्यवस्थानं येन वचसोशेषजीवात्मकत्वे यथोक्तो दोषो न भवेदिति न जीवात्मकं वचनं / तद्वच्छरीरादिकमप्यजीवात्मकमस्माकं प्रसिद्ध्यत्येव // . बाहोंद्रियपरिच्छेद्यः शब्दो नात्मा यथैव हि। तथा कायादिरर्थोपि तदजीवोऽस्ति वस्तुतः॥४२॥ दोनों की आत्मा एक है तो एक को तो प्रतीति हो और एक को नहीं हो, यह कैसे हो सकता है ? अथवा प्रतिपाद्य को ही परम ब्रह्माद्वैत में विवाद है, प्रतिपादक को नहीं; ऐसा मानने पर तो नानात्मा वा प्रतिपादक और प्रतिपाद्य का भेद सिद्ध होता है अभेद नहीं। यदि कहो कि अविद्या के कारण प्रतिपादक और प्रतिपाद्य का विभाग होता है तो वह अविद्या प्रतिपाद्यगत ही क्यों है, प्रतिपादकगत क्यों नहीं है? - प्रतिपाद्य और प्रतिपादक में अभेद होने पर भी यह अविद्या प्रतिपाद्यगत है और यह प्रतिपादकगत ऐसी ब्रह्माद्वैतवादियों की तत्त्व विवक्षा पर हमारा चित्त साश्चर्य हो रहा है अर्थात् हमको आश्चर्य हो रहा है। यदि कहो कि - यह प्रतिपादक गत अविद्या है और यह प्रतिपाद्य गत अविद्या है, इस प्रकार के विभाग का संप्रत्यय ज्ञान अविद्याकृत ही है अर्थात् प्रतिपाद्य की अविद्या जिज्ञासा करने वाली है और प्रतिपादक की अविद्या निर्णय कराने वाली है तो क्या यह सारा जगत अविद्या का ही प्रपञ्च है ? इस प्रकार तो सर्व आत्मागत ब्रह्माद्वैत भी अविद्या का प्रपञ्च वास्तविक है, अर्थात् सर्व व्यापक एक ब्रह्म मानना तथा सम्पूर्ण पदार्थों को आत्मस्वरूप स्वीकार करना भी अविद्या से होगा। यदि कहो कि अविद्या का प्रपञ्च भी अविद्या के आधीन ही है, तब तो वास्तव में कहीं भी अविद्या का प्रपंच नहीं है अत: उस अविद्या के द्वारा किया गया प्रतिपाद्य-प्रतिपादक का विभाग भी अविद्या से नहीं अपितु परमार्थ से है। इसलिए प्रतिपाद्य प्रतिपादक आदि जीवविभाग की सिद्धि परमार्थ है, कल्पित नहीं अत: अद्वैतवादियों के द्वारा एक ही आत्म तत्त्व की व्यवस्था नहीं हो सकती। जिससे वचनों को अशेष जीवात्मक मान लेने पर उपरिकथित दोष प्राप्त न होवें। अर्थात् वचनों को जीवात्मक मान लेने पर पूर्व कथित प्रतिपाद्य प्रतिपादक आदि के अनेक होने से दोष आता ही है। अत: वचन जीवात्मक नहीं हैं। जिस प्रकार वचनों के अजीवात्मक होने की सिद्धि होती है उसी प्रकार हमारे शरीर आदि भी अजीव हैं, ऐसा सिद्ध होता ही है अर्थात् जीव तत्त्व के समान अजीव तत्त्व भी प्रसिद्ध ही है। जिस प्रकार बाह्य इन्द्रियों के द्वारा परिच्छेद्य (जानने योग्य) होने से शब्द आत्मा (जीव) नहीं हैसी प्रकार बाह्य इन्द्रियों के द्वारा परिच्छेद्य होने से शरीरादि पदार्थ भी जीवात्मक नहीं हैं,अपितु ये सर्व वास्तव में अजीवात्मक हैं अत: अजीव तत्त्व कल्पित नहीं है, वास्तविक है॥४२॥
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy