________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 56 न ह्युपायापाये परार्थसाधनं सिद्ध्यति तस्योपेयत्वादन्यथातिप्रसक्ते रिति / तस्योपायोस्ति वचनमन्यथानुपपत्तिलक्षणलिंगप्रकाशकं / जीवात्मकमेव तदित्ययुक्तं, प्रतिपादकजीवात्मकत्वे तस्य प्रतिपाद्याद्यसंवेद्यत्वापत्तेः। प्रतिपाद्यजीवात्मकत्वे प्रतिपादकाद्यसंवेद्यतानुषक्तेः, सत्यजीवात्मकत्वे प्रतिपाद्यप्रतिपादकासंवेद्यत्वासंगात्। प्रतिपादकाद्यशेषजीवात्मकत्वे तदनेकत्वे विरोधादेकवचनात्मकत्वेन तेषामेकत्वसिद्धः। सत्यमेक एवात्मा प्रतिपादकादिभेदमास्तिष्णुते अनाद्यविद्यावशादित्यप्युक्तोत्तरप्रायमात्मनानात्वसाधनात्। कथं चात्मनः सर्वथैकत्वे प्रतिपादकस्यैव तत्र संप्रतिपत्तिर्न तु प्रतिपाद्यस्येति प्रतिपद्येमहि। तस्यैव वा विप्रतिपत्तिर्न पुनः प्रतिपादकस्येति तथा तद्भेदस्यैव उपाय के बिना दूसरों के लिए आत्म तत्त्व का साधन-प्रतिपादन करना सिद्ध नहीं होता क्योंकि वह आत्म तत्त्व उपायों के द्वारा जानने योग्य उपेयत्व है। उपाय के बिना ही उपेयत्व को जानने में अतिप्रसंग दोष आता है (बिना किसी उपाय से चाहे जिसकी सिद्धि हो जाएगी।) अतः निश्चय होता है कि उस आत्मतत्त्व को जानने का उपाय वचन ही है। वह अन्यथानुपपत्ति लक्षण हेतु का प्रकाशक है। साध्य के नहीं होने पर हेतु का नहीं होना अन्यथानुपपत्ति है। अन्यथानुपपत्ति, अविनाभाव, नांतरीयक और व्याप्ति ये चारों एकार्थवाची शब्द हैं। अन्यथानपपत्ति लक्षण वाला हेत ही अपने साध्य का प्रकाशक होता है। अर्थात वचन के बिना आत्मा का प्रतिपादन नही होता। वचन जीवात्मक ही है ऐसा कहना युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि वचन को प्रतिपादक के जीवात्मक मान लेने पर प्रतिपाद्य आदि को असंवेद्य का प्रसंग आयेगा और प्रतिपाद्य के जीवात्मकत्व मान लेने पर प्रतिपादक आदि के अस्वसंवेदन का प्रसंग आता है। अर्थात् वक्ता की आत्मा के साथ वचनों का तादात्म्य संबंध मान लेने पर शिष्यों को उसका संवेदन नहीं होगा और शिष्यों श्रोताओं की आत्मा के साथ वचनों का तादात्म्य मान लेने पर वक्ताओं को उनका वचनों का स्वसंवेदन नहीं होगा क्योंकि दसरों की आत्मा का दूसरा संवेदन नहीं कर सकता अत: सामान्य जीवात्मक वचन के मान लेने पर प्रतिपाद्य और प्रतिपादक के असंवेदन का प्रसंग आता है अर्थात् सामान्य जन उनका अनुभव करेंगे, शिष्य शिक्षक नहीं। यदि प्रतिपाद्य प्रतिपादक आदि सर्व जीवात्मक वचन हैं ऐसा मानते है तो वचन के अनेकत्व होने पर एक वचनात्मकत्व से विरोध आता है तो उन अद्वैतवादियों के एकत्व परमब्रह्म की सिद्धि कैसे हो सकती है अर्थात् प्रतिपाद्य एवं प्रतिपादक के भिन्न-भिन्न वचन होने से नाना आत्माओं की सिद्धि होती है ; एक पुरुषाद्वैत वा ब्रह्माद्वैत की सिद्धि नहीं होती। सत्य रूप से देखा जाए तो आत्मा एक ही है परन्तु अनादि अविद्या के कारण एक ही परम ब्रह्म प्रतिपादक आदि भेद को प्राप्त होता है। इस प्रकार कथन करने वाले ब्रह्माद्वैतवादियों का भी खण्डन हमने पूर्व में कर दिया है जहाँ नानात्मा की सिद्धि की है। सर्वथा एक ही परम ब्रह्म होने पर प्रतिपादक की आत्मा को ब्रह्माद्वैत की निर्बाध प्रतीति हो रही है और प्रतिपाद्य को परम ब्रह्म की प्रतीति नहीं, यह हम कैसे समझें अर्थात् जब प्रतिपादक और प्रतिपाद्य