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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 55 विधायकमेव प्रत्यक्षमिति नियमोस्ति, निषेधकत्वेनापि तस्य प्रतीयमानत्वात्। तथाहि;विधात्रहं सदैवान्यनिषेद्ध न भवाम्यहम्। स्वयं प्रत्यक्षमित्येवं वेत्ति चेन्न निषेद्भुकम् // 39 // विधातृ च नान्यनिषेद्धप्रत्यक्षमिति न प्रमाणांतरान्निश्चयो द्वैतप्रसंगात्। स्वत एव यथा निश्चये सिद्धं तस्य निषेधकत्वं परस्य निषेद्धृहं न भवामीति स्वयं प्रतीतेः॥ संति सत्यास्ततो नाना जीवा: साध्यक्षसिद्धयः। प्रतिपाद्याः परेषां ते कदाचित्प्रतिपादकाः॥४०॥ यतश्चैवं प्रमाणतो नानात्मनः सिद्धास्ततो न तेषां प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावो मिथ्या येन परार्थं जीवसाधनमसिद्धं स्यात् // परार्थं निर्णयोपायो वचनं चास्ति तत्त्वतः। तच्च जीवात्मकं नेति तद्वदन्यच्च किं ततः॥४१॥ स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से आत्माओं के अनेकपनेकी सिद्धि होती है। आत्मा के एकत्व की सिद्धि नहीं होती क्योंकि प्रत्येक आत्मा में स्वसंवेदन प्रत्यक्ष अपने-अपने पृथक्-पृथक् ब्रह्म को जान रहा है। - तथा प्रत्यक्ष प्रमाण विधायक ही है निषेधक नहीं है, ऐसा भी कहना उचित नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा निषेधकत्व की भी प्रतीति होती है। जैसे भूतल पर यह वस्तु नहीं है ऐसा ज्ञान भी होता है। तथाहि इसी बात को सिद्ध करते हैं जैसे - “मैं सदा ही आत्मा का विधान करने वाला हूँ , निषेध करने वाला नहीं हूँ।" इस प्रकार कहने वाला प्रत्यक्ष स्वयं निषेधक नहीं है। ऐसा कहने पर तो वह प्रत्यक्ष स्वयं निषेध करने वाला क्यों नहीं होगा ? अर्थात् निषेध करने वाला नहीं हूँ यही तो निषेध है॥३९॥ अथवा प्रत्यक्ष प्रमाण अस्तित्व का विधायक है निषेधक नहीं है इस प्रकार की सिद्धि प्रमाणान्तर से तो नहीं हो सकती क्योंकि प्रमाणान्तर से सिद्धि मानने पर द्वैत का प्रसंग आता है और यदि स्वयं प्रत्यक्ष ज्ञान से ही यह सिद्ध होता है कि प्रत्यक्ष अस्तित्व का विधायक है, निषेधक नहीं / ऐसा कहने पर स्वयं प्रत्यक्ष ही निषेधक है यह सिद्ध होता है क्योंकि मैं निषेधक नहीं हूँ वही तो निषेधक अर्थात् स्वयं ही प्रत्यक्ष से निषेध की प्रतीति हो रही है इसलिए स्वसंवेदन सिद्ध सहित नाना आत्मा हैं वे कभी दूसरों के द्वारा प्रतिपाद्य (समझाने योग्य) होती हैं और कभी वही आत्मा प्रतिपादक हो जाती है। जिस समय ज्ञानाभ्यास कर रही थी तब प्रतिपाद्य थी और परिपक्व अवस्था में प्रतिपादक हो जाती है॥४०॥ इस प्रकार जिस हेतु से नानात्मा प्रमाण से सिद्ध है अत: उन आत्मा के प्रतिपाद्य और प्रतिपादक भाव मिथ्या नहीं हैं जिससे दूसरे जीवों के लिए जीव पदार्थ की सिद्धि करना असिद्ध हो अर्थात् दूसरों के लिए जीव पदार्थ की सिद्धि करना असिद्ध नहीं है। युक्त ही है। परमार्थ से देखा जाय तो दूसरों के लिए जीवतत्त्व का निर्णय कराने का उपाय वचन ही है और बेवचन जीवात्मक नहीं हैं अतः अजीवात्मक हैं। इस प्रकार वचन अजीव के समान हमारे जैन सिद्धान्त में अन्य धर्म, अधर्म, आकाश, काल आदि अजीव पदार्थ क्यों नहीं सिद्ध होंगे, अवश्य होंगे॥४१॥
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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