________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 54 न ह्यस्मदादिप्रत्यक्षमिंद्रियजं मानसं वा स्वसंवेदनमेक एवात्मा सर्व इति विधातुं समर्थ नानात्मभेदेषु तस्य प्रवृत्तेः। योगिप्रत्यक्षं समर्थमिति चेत्, पुरुषनानात्वमपि विधातुं तदेव समर्थमस्तु तत्पूर्वकागमश्चेत्यविरोधः / स्वसंवेदनमेवास्मदादेः स्वैकत्वस्य विधायकमिति चेत् , तथान्येषां स्वैकत्वस्य तदेव विधायकमनुमन्यता। कथं ? यथैव च ममाध्यक्षं विधातृ न निषेधृ वा। प्रत्यक्षत्वात्तथान्येषामन्यथैतत्तथा कुतः॥ 38 // परेषां प्रत्यक्षं स्वस्य विधायकं परस्य न निषेधकं वा प्रत्यक्षत्वान्मम प्रत्यक्षवत्। विपर्ययो वा अतिप्रसंगविपर्ययाभ्यां प्रत्यात्मस्वसंवेदनस्यैकत्वविधायित्वासिद्धरात्मबहुत्वसिद्धिरात्मैकत्वासिद्धिर्वा / न च प्रश्न : योगिप्रत्यक्ष पुरुषाद्वैत को जानने में समर्थ है उत्तर : ऐसा नहीं कह सकते, योगि प्रत्यक्ष भी नाना पुरुषत्व (आत्मा) का विधान करने में समर्थ है क्योंकि योगिप्रत्यक्ष के द्वारा ही आगम का निरूपण होता है और आगम में नानात्माओं का विधान है। __अन्य वादियों ने चार प्रकार का प्रत्यक्ष माना है इन्द्रिय प्रत्यक्ष, मानस प्रत्यक्ष, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष और योगिप्रत्यक्ष। इनमें इन्द्रिय प्रत्यक्ष, मानस प्रत्यक्ष और स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से ब्रह्माद्वैत की सिद्धि नहीं होती क्योंकि इन ज्ञान वाले तो अपनी आत्मा का भिन्न-भिन्न रूप से अनुभव कर रहे हैं। योगिप्रत्यक्ष के द्वारा तो आगम का निर्माण होता है। आगम में नानात्मा की सिद्धि है अत: कोई भी प्रत्यक्ष आत्मा के अनेकपने को सिद्ध करने में विरोधी नहीं है अर्थात् सर्व प्रत्यक्ष आत्मा का अनेकपन ही सिद्ध करते हैं। अद्वैतवादी कहते हैं कि - हमारे समान संसारी जीवों का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष अपनी आत्मा के एकत्व का विधान करने वाला है। आचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर तो दूसरे का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष अपनी-अपनी. आत्मा के एकत्व का विधान करने वाला है, ऐसा स्वीकार करना पड़ेगा फिर एकत्व आत्मा की सिद्धि कैसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती है क्योंकि अनेक का समुदाय होने से अनेक आत्मा की सिद्धि होती है। जैसा मेरा प्रत्यक्ष मेरे अस्तित्व का कथन करने वाला है, निषेध करने वाला नहीं है उसी प्रकार दूसरों का प्रत्यक्ष भी प्रत्यक्षत्व होने से दूसरे की आत्मा के अस्तित्व का विधायक है, यदि ऐसा नहीं माना जाय तो 'प्रत्यक्ष अपना विधायक है' ऐसा कथन कैसे हो सकता है, अत: सर्व आत्माओं के स्वसंवदेन अपनीअपनी आत्मा का प्रत्यक्ष करते हैं॥३८॥ जैसे मेरा प्रत्यक्ष मेरी आत्मा का विधायक है, दूसरे का निषेधक नहीं है प्रत्यक्ष ज्ञान होने से, वैसे दूसरों का प्रत्यक्ष उनकी अपनी आत्मा का स्वसंवेदन करता है, दूसरों की आत्मा का निषेध नहीं करता है प्रत्यक्ष होने से। इस प्रकार विपरीत सिद्धि भी हो सकती है। जैसे अतिप्रसंग और विपर्यय से विपरीत भी होता है अर्थात् अतिप्रसंग या प्रसंग से आत्माओं के बहुपने की सिद्धि होती है और विपर्यय से आत्मा के एकत्वपने की सिद्धि नहीं होती अर्थात् अपने-अपने स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से अपनी-अपनी आत्माएँ जानी जाती हैं अत: वे अनेक हैं एकत्व नही है, क्योंकि प्रत्येक आत्मा में होने वाले स्वसंवेदन प्रत्यक्ष को आत्मा के एकत्व का विधान करना सिद्ध नहीं होता। अपितु इस