________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 52 मत्तोन्येपि निरुपाधिकं स्वरूपमात्रमव्यभिचारि संविदंतीति निर्णीतेरसंभवात् तत्र प्रत्यक्षस्याप्रवृत्तेरव्यभिचारिणो लिंगस्याभावादनुमानानुत्थानादिति वचने सर्वशून्यतापत्तिः। त्वत्संविदोपि तथान्यैर्निश्चेतुमशक्तेः सर्वथा विशेषाभावात् / यदि पुनरपरैरनिश्चयेपि तथा स्वसंविदः स्वयं निश्चयात् सत्यत्वसिद्धिस्तदा त्वया निश्चेतुमशक्यानामपि तथा परसंविदां सत्यत्वसिद्धेः सिद्धं पुंसां नानात्वं पारमार्थिकम्॥ आत्मानं संविदंत्यन्ये न वेति यदि संशयः। तदा न पुरुषाद्वैतनिर्णयो जातु कस्यचित् // 35 // मत्तः परेप्यात्मानः स्वसंविदंतो न संत्येवेति निर्णये हि कस्यचित्पुरुषाद्वैते निर्णयो युक्तो न पुनः संशये तत्रापि संशयप्रसंगात् / “पुरुष एवेदं सर्वं' इत्यागमात्पुरुषाद्वैतसिद्धिरिति चेत् "संत्यनंताजीवा''इत्यागमानानाजीवसिद्धिरस्तु। पुरुषाद्वैतविधिस्रगागमेन प्रकाशनात् प्रत्यक्षस्यापि विधातृतया __ मेरे से भिन्न जीवों में निरुपाधिक अव्यभिचारी निर्दोष स्वरूप मात्र का संवेदन होता है, ऐसे निर्णय की असंभवता है अर्थात् ऐसा निर्णय करना असंभव है कि मेरे से दूसरे जीवों के स्वरूप का संवेदन होता है क्योंकि दूसरे के संवेदन में प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रवृत्ति का तो अभाव है और निर्दोष ज्ञापक हेतु का अभाव होने से अनुमान ज्ञान से भी दूसरी आत्मा का संवेदन नहीं जाना जा सकता है। अद्वैतवादी के ऐसा कहने पर आचार्य कहते हैं कि तेरे इस कथन में सर्वशून्यता का प्रसंग आता है। क्योंकि तेरी आत्मा में और दूसरे की आत्मा में सर्वथा विशेषता का अभाव होने से जैसे दूसरे की आत्मा का तुझे प्रतिभास नहीं हो रहा है वैसे तेरे संवेदन का भी दूसरों के द्वारा निर्णय करना अशक्य होगा। यदि तुम कहो कि दूसरों के द्वारा मेरी संवित्ति का निर्णय मत होवो परन्तु मुझे तो मेरा संवेदन हो रहा है, वह सत्यस्वरूप है तो तेरे द्वारा दूसरे का संवेदन शक्य नहीं है तो भी उनको अपनी-अपनी चैतन्य आत्मा का संवेदन तो हो रहा है, वह वास्तविक है, प्रमाणभूत है। इसलिए आत्मा का नानापना (भिन्न-भिन्न आत्मा की सिद्धि) परमार्थभूत सिद्ध है। ___ यदि ब्रह्माद्वैतवादी कहे कि मुझे तो अपनी आत्मा का पूर्ण निर्णय है कि मैं ही अकेला ब्रह्म हूँ, परन्तु अन्य प्राणी अपनी-अपनी आत्मा का संवेदन करते हैं अथवा नहीं करते हैं इसका मुझे संशय है, तो आचार्य कहते हैं कि तब तो किसी एक व्यक्ति को पुरुषाद्वैत का निर्णय कभी भी नहीं हो सकता। जब अन्य आत्माओं का निर्णय तुम नहीं कर सकते तब अद्वैत ब्रह्म का निश्चय कैसे कर सकते हो अर्थात् नहीं कर सकते॥३५॥ क्योंकि मेरे से भिन्न अपना संवेदन करती हुई भिन्न आत्माएँ जगत् में नहीं हैं ऐसा निर्णय होने पर ही पुरुषाद्वैत का निर्णय हो सकता है। वा पुरुषाद्वैत का निर्णय करना युक्तिसंगत हो सकता है परन्तु अन्य आत्माओं का संशय होने पर पुरुषाद्वैत का निर्णय नहीं हो सकता है अपितु उसमें संशय का ही प्रसंग आता है। यदि कहो कि : “पुरुष एवेदं सर्वं' सारा जगत् ब्रह्म स्वरूप है" इस प्रकार आगम से पुरुषाद्वैत की सिद्धि होती है अर्थात् वेदवाक्य में लिखा है कि एक ब्रह्म ही है दूसरा कुछ नहीं है। तो सन्त्यनन्ताजीवा: अनन्त जीव हैं, इस आगम वाक्य से नाना जीवा की भी सिद्धि होती है। इसका निषेध कैसे हो सकता है।