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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 51 यथैव मम संवित्तिमात्रं सत्यं व्यवस्थितम् / स्वसंवेदनसंवादात्तथान्येषामसंशयम् // 32 // __बहुत्वप्रत्ययवदेकत्वप्रत्ययोपि मिथ्यास्तु तस्य व्यभिचारित्वात् स्वप्नादिवत्। स्वसंविन्मात्रस्य तु परमात्मनो निरुपाधेळभिचारविनिर्मुक्तत्वात् सर्वदा संवादान्न मिथ्यात्वमिति वदतां सिद्धाः स्वसंविदात्मनो नानासंतानाः। स्वस्येव परेषामपि संविन्मात्रस्याव्यभिचारित्वात्। तथाहि / नानासंतानसंविदः सत्या:सर्वदा व्यभिचारविनिर्मुक्तत्वात् स्वसंविदात्मवदिति न मिथ्या प्रतिपाद्यप्रतिपादका, यतः परार्थं जीवसाधनमभ्रांतं न सिद्ध्येत्। अन्ये त्वत्तो न संतीति स्वस्य निर्णीत्यभावतः। नान्ये मत्तोपि संतीति वचने सर्वशून्यता // 33 // तस्याप्यन्यैरसंवित्तेर्विशेषाभावतोन्यथा। सिद्धं तदव नानात्वं पुंसां सत्यसमाश्रयम् // 34 // . क्योंकि जैसे मेरा संवित्मात्र (प्रत्यक्ष अनुभव होने से मेरा संवेदन) सत्यरूप से व्यवस्थित है वैसा अन्यजीवों का भी स्वसंवेदन संवाद से नि:संशय सिद्ध है अर्थात् जैसा एक व्यक्ति को अपना संवेदन होता है वैसा भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को अपना-अपना संवेदन होता है, यह निर्धांत है सत्य है॥३१-३२॥ __ अद्वैतवादी कहते हैं कि - बहुत्व के ज्ञान के समान एकत्व का ज्ञान भी मिथ्या है, भ्रान्त है क्योंकि स्वप्न ज्ञान के समान उसके भी व्यभिचारित्व (भ्रान्तपना) है। निरुपाधि (जिसमें और बहुत्व का प्रतिभास नहीं है) अव्यभिचारी संविमात्र (स्वसंवेदन) परमात्मा का ज्ञान ही सर्वदा संवाद (प्रमाण युक्त) होने से मिथ्या नहीं है। (वही संवित्तिमात्र ज्ञान ही प्रमाणभूत है।) आचार्य कहते हैं -ऐसा कहने वाले अद्वैतवादी 'के भी स्वसंविदआत्मज्ञान के भी नाना संतान सिद्ध होती हैं। क्योंकि जैसे अपने शुद्ध संवदेन में व्यभिचार प्रतीत नहीं होता है वैसे ही दूसरों को भी अपने स्वसंवेदन में व्यभिचार नहीं है। . तथाहि (अनुमानद्वारा सिद्ध करते हैं) अनेक जीवों को अपने-अपने अनुभव में आने वाले अनेक प्रतिभास वास्तविक हैं, व्यभिचार (दोष) रहित होने से अपने अनुभव में आने वाले प्रतिभास के समान। अर्थात् जैसे अपने अनुभव में आने वाला प्रतिभास वास्तविक है वैसे दूसरों के अनुभव में आने वाले प्रतिभास. भी वास्तविक हैं अत: नानात्मा सिद्ध हो जाने से प्रतिपाद्य शिष्य और प्रतिपादक गुरु (समझाने वाला) रूप अनेक आत्मायें भी मिथ्या नहीं हैं, वास्तविक हैं। इसलिए परार्थ जीव साधन (प्रतिपादक के द्वारा प्रतिपाद्य के लिए जीव की सिद्धि करना) अभ्रान्त सिद्ध नहीं होता है, ऐसा नहीं है अर्थात् अभ्रान्त सिद्ध होता ही है। ___ 'मेरे से भिन्न अन्य कोई आत्मा नहीं है' इस प्रकार अपने द्वारा निर्णीति का अभाव होने से 'मेरे से भिन्न अन्य कोई नहीं हैं,' इस प्रकार के वचन में भी सर्वशून्यता का प्रसंग आयेगा। 'मेरे से भिन्न संसार में अन्य कोई पदार्थ नहीं है' ऐसा कहने पर सर्वशून्यता का प्रसंग आता है क्योंकि ब्रह्माद्वैतवादी अजीव को तो मानते ही नहीं और जीव भी एक है, नाना नहीं अत: जैसा तुझ को दूसरे का अनुभव नहीं हो रहा है वैसे तेरा भी अनुभव दूसरे को नहीं है इसलिए कोई भी वस्तु वास्तविक नहीं रहेगी। जैसे तुमको दूसरे की संवित्ति नहीं होती वैसे दूसरे को तेरी संवित्ति नहीं होती है क्योंकि तेरे में और दूसरों में कोई विशेषता नहीं है। यदि ऐसा नहीं मानोगे तो अर्थात् अपना अस्तित्व मानोगे तब तो अन्य आत्मायें भी अपनेअपने अस्तित्व का संवेदन करेंगी, वही पुरुष (आत्मा) का सत्य समाश्रय वास्तविक नानापना सिद्ध करेगा॥३३-३४॥
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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