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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *50 जीवाः संति भ्रांतेरन्यत्र मायास्वप्नादिजीववत् तेषां पारमार्थिकतानुपपत्तेः। तथाहि। जीवबहुत्वप्रत्ययो मिथ्या बहुत्वप्रत्ययत्वात् स्वप्नादिदृष्टजीवबहुत्वप्रत्ययवदिति कश्चित्, तदनालोचितवचनम्॥ अद्वयस्यापि जीवस्य विभ्रांतत्वानुषंगतः। एकोऽहमिति संवित्तेः स्वप्नादौ भ्रमदर्शनात् // 30 // शक्यं हि वक्तुं जीवैकत्वप्रत्ययो मिथ्या एकत्वप्रत्ययत्वात् स्वप्नैकत्वप्रत्ययवदिति। एकत्वप्रत्ययश्च स्यान्मिथ्या च न स्याद्विरोधाभावात् / कस्यचिदेकत्वप्रत्ययस्य मिथ्यात्वदर्शनात् सर्वस्य मिथ्यात्वसाधनेतिप्रसंगादिति चेत् समानमन्यत्र / / व्यभिचारविनिर्मुक्तेः संविन्मात्रस्य सर्वदा। न भ्रांततेति चेत्सिद्धा नानासंतानसंविदः // 31 // गोचर होती है परन्तु वह वास्तविक नहीं है, भ्रांति है; उसी प्रकार प्रतिपाद्य प्रतिपादक के रूप से जीव बहुत से दृष्टिगोचर होते हैं वह भ्रांति है, भ्रांति को छोड़कर पारमार्थिक की अनुपपत्ति होने से जीव बहुत नहीं हैं, एक ही ब्रह्म रूप है अत: जीव में बहुत्व का ज्ञान मिथ्या है, बहुत्व को जानने वाला होने से, जैसे स्वप्न में देखे गये बहुत से पदार्थों का, मायाजाल से दिखाये गये बहुत से पदार्थों का ज्ञान मिथ्या है, क्योंकि स्वप्न में वा मायाजाल विद्या से एक ही पदार्थ बहुत रूप से दिखता है, यह मिथ्या भ्रांति है वास्तविक नहीं है। उसी प्रकार अविद्या से एक ही अखण्ड ब्रह्म अनेकरूप दिख रहा है, जीव अनेक नहीं हैं। आचार्य देव कहते हैं कि इस प्रकार ब्रह्माद्वैत का कथन अयोग्य है, युक्त नहीं है, अविचारित है, निसत्त्व असारभूत है, सार रहित है। यदि स्वप्न आदि का दृष्टान्त देकर जीव के नानापने के ज्ञान को भ्रांत कहोगे तो जीव के अद्वैतपने के ज्ञान में भी विभ्रांतत्व का प्रसंग आयेगा क्योंकि मैं एक हूँ , ब्रह्म एक है इस प्रकार एकत्व को जानने वाले ज्ञान भी स्वप्न आदि अवस्थाओं में भ्रमरूप देखे जाते हैं। अर्थात् स्वप्न में होने वाला ज्ञान भी झूठा होता है॥३०॥ अनुमान से सिद्धि - क्योंकि हम ऐसा भी कह सकते हैं कि जीव का एकत्व ज्ञान मिथ्या है, एकत्व का प्रत्यय (ज्ञान) होने से, स्वप्न में होने वाले एकत्व ज्ञान के समान / ऐसा अनुमान से सिद्ध किया जाता है। यदि कहो कि एकत्व का ज्ञान होता है, परन्तु वह मिथ्या-भ्रांत नहीं है, इसमें कोई विरोध नहीं है क्योंकि किसी एकत्व प्रत्यय के मिथ्यात्व को देखकर सभी एकत्व ज्ञान को मिथ्यात्व भ्रांत सिद्ध करने पर अतिप्रसंग दोष आता है तो यह तो अनेकत्व ज्ञान में भी समान है अर्थात् स्वप्न आदि ज्ञान के अनेकत्व को भ्रांत देखकर सभी वस्तुभूत अनेक पदार्थों में रहने वाले नानापने को यदि मिथ्या सिद्ध किया जायेगा तो अतिप्रसंग दोष आयेगा अर्थात् सभी अवस्तु हो जायेंगे। इससे सिद्ध होता है कि एकत्व रूप और अनेकत्व रूप होने वाले दोनों ही ज्ञान अभ्रान्त सत्य हैं। अनेकान्त रूप स्याद्वाद कथनों में विरोध का स्थान नहीं रहता है। ब्रह्माद्वैतवादी कहते हैं कि व्यभिचार (नानापना वा एकपना के विशेषण) से रहित संविन्मात्र (केवल प्रतिभास मात्र) तत्त्व में कोई भ्रांति नहीं है। आचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर तो अनेक सन्तानों का अनेक संवेदन भी सिद्ध होता है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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