________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 49 परार्था जीवसिद्धिर्हि तेषां स्याद्वचनात्मिका। अजीवो वचनं तस्य नान्यथान्येन वेदनम् // 28 // अस्त्यजीवः परार्थजीवसाधनान्यथानुपपत्तेः। परार्थजीवसाधनं च स्यादजीवश्च न स्यादिति न शंकनीय,तस्य वचनात्मकत्वाद्वचनस्याजीवत्वात् जीवत्वे परेण संवेदनानुपपत्तेः। स्वार्थस्यैव जीवसाधनस्य भावात् परार्थं जीवसाधनमसिद्धमिति चेत्, कथं परेषां तत्त्वप्रत्यायनं ? तदभावे कथं केचित्प्रतिपादकास्तत्त्वस्य परे प्रतिपाद्यास्तेषामिति प्रतीति: स्यात्॥ न जीवा बहवः संति प्रतिपाद्यप्रतिपादकाः। भ्रांतेरन्यत्र मायादिदृष्टजीववदित्यसत् // 29 // एक एव हि परमात्मा प्रतिपाद्यप्रतिपादकरूपतयानेको वा प्रतिभासते अनाद्यविद्याप्रभावात्। न पुनर्बहवो सिद्धि भी नहीं होती क्योंकि उन ब्रह्मस्वरूप जीव की सिद्धि करने वाले ब्रह्माद्वैतवादियों के पर के लिए (शिष्य आदि को समझाकर) जीवादि की सिद्धि करने का प्रयत्न वचनात्मक है और वचन अजीवात्मक है। उस अमूर्तिक आत्मा का पौद्गलिक वचनों के सिवाय अन्य प्राणियों को वेदन कराना संभव नहीं है अर्थात् वचन उच्चारण के बिना दूसरों को आत्मा का ज्ञान कराया नहीं जा सकता तथा वचन को जीवात्मक मानलेने पर दूसरों के द्वारा उसका संवेदन नहीं हो सकता॥२७-२८॥ __अनुमान के द्वारा अजीव की सिद्धि करते हैं “अजीव नाम का पदार्थ है"-क्योंकि दूसरे के लिए जीव की सिद्धि अजीव के बिना नहीं हो सकती। दूसरों के लिए जीव के प्रतिपादन करने का साधन (हेतु) अजीव है कि नहीं, ऐसी शंका नहीं करना चाहिए क्योंकि दूसरों के लिए जीव की सिद्धि के प्रतिपादन का हेतु वचन है और वचन अजीवात्मक पौद्गलिक है, अतः परार्थ जीव का साधक अजीव है। ब्रह्माद्वैत की सिद्धि के लिए वचन को जीवत्व स्वीकार कर लेने पर (शिष्य आदि के द्वारा) संवेदन (जीवतत्त्व का संवेदन ज्ञान) नहीं बन सकता। केवल अपने ही लिए जीव स्वरूप से जीव की सिद्धि होती रहेगी अर्थात् अन्य जीव के स्वरूप का अनुभव, संवेदन अन्य जीव नहीं कर सकता। दूसरों को आत्मस्वरूप का ज्ञान कराने के लिए वचनात्मक पौद्गलिक अजीव ही कारण है। यदि कहा जाय कि दूसरों के लिए जीव का प्रतिपादन करना ही असिद्ध है तो हम दूसरों को अपने अभीष्ट तत्त्व (ब्रह्माद्वैत) के ज्ञान का प्रतिपादन कैसे करेंगे। दूसरे को तत्त्व का विवेचन करके कैसे समझायेंगे और तत्त्व के प्रतिपादन के अभाव में कोई तत्त्व के प्रतिपादक हैं (गुरु ) और दूसरे प्रतिपाद्य (शिष्य) हैं', इस प्रकार की प्रतीति उन ब्रह्माद्वैतवादियों के कैसे घटित होगी। __मायादि दृष्ट जीव के समान भ्रांति के सिवाय प्रतिपाद्य और प्रतिपादक के भेद से जीव बहुत प्रकार के नहीं है। ऐसा अद्वैतवादियों का कहना असत्य है॥२९॥ . - इसी का विस्तार रूप से कथन करते हैं - ब्रह्माद्वैतवादी कहता है कि एक ही परमात्मा अनादि अविद्या के कारण प्रतिपाद्य और प्रतिपादक के रूप से (भेद से) अनेक प्रकार से प्रतिभासित होता है वास्तविक नहीं। जैसे मायाजाल, स्वप्न और मंत्र तंत्र आदि के द्वारा एक ही वस्तु अनेक प्रकार की दृष्टि