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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 47 मोक्षपरमनिर्जरयोरविशेष इति चेतसि मा कृथाः , परमनिर्जरणस्यायोगकेवलिचरमसमयवर्तित्वात्तदनंतरसमयवर्तित्वाच्च मोक्षस्य / य एवात्मन: कर्मबंधविनाशस्य कालः स एव केवलत्वाख्यमोक्षोत्पादस्येति चेत् न, तस्यायोगकेवलिचरमसमयत्वविरोधात् पूर्वस्य समयस्यैव तथात्वापत्तेः / तस्यापि मोक्षत्वे तत्पूर्वसमयस्येति सत्ययोगकेवलिचरमसमयो व्यवतिष्ठेत / न च तस्यैव मोक्षत्वे अतीतगुणस्थानत्वं मोक्षस्य युज्यते चतुर्दशगुणस्थानान्त:पातित्वानुषंगात्। लोकाग्रस्थानसमयवर्तिनो मोक्षस्यातीतगुणस्थानत्वं युक्तमेवेति चेत्, परमनिर्जरातोन्यत्वमपि तस्यास्तु निश्चयनयादस्यैव मोक्षत्वव्यवस्थानात्। तत: सूक्तो जीवादीनां क्रमो हेतुविशेषः॥ किं पुनस्तत्त्वमित्याह;तस्य भावो भवेत्तत्त्वं सामान्यादेकमेव तत् / तत्समानाश्रयत्वेन जीवादीनां बहुत्ववाक् // 24 // भावस्य तद्वतो भेदात् कथंचिन्न विरुध्यते। व्यक्तीनां च बहुत्वस्य ख्यापनार्थत्वतः सदा // 25 // दोनों में कार्य-कारण की प्रत्यासत्ति है। अर्थात् संवर और निर्जरा कारण हैं और मोक्ष कार्य है अत: संवर, निर्जरा और अन्त में मोक्ष का कथन किया है। चित्त में इस प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिए कि मोक्ष तथा परम निर्जरा में कोई विशेषता (भेद) नहीं है, दोनों एक हैं। क्योंकि अयोग केवली नाम चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में परम निर्जरा होती है तथा उसके अनन्तर समय में मोक्ष होता है। अर्थात् निर्जरा कारण है और मोक्ष कार्य है वा निर्जरा गुणस्थान में होती है और मोक्ष गुणस्थानातीत है। अत: दोनों में भेद है। निर्जरा और मोक्ष दोनों एक नहीं हो सकते। शंका : जो काल आत्मा के कर्मविनाश का है वही समय केवलत्व नामक मोक्ष के उत्पाद का हैं। समाधान : ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर कर्मनिर्जरा का अयोग केवली के चरम समय में रहने का विरोध आता है। यदि उपांत्य समय में होने वाली परम निर्जरा को मोक्ष कहा जायेगा तो उससे भी पहले समय में परम निर्जरा कहनी पड़ेगी। इस प्रकार द्विचरम, त्रिचरम आदि समयों में मोक्ष होने का प्रसंग आयेगा। मोक्ष की कोई व्यवस्था नहीं बनेगी। अत: अयोग केवली का चरम समय ही परम निर्जरा का काल है और उसके पीछे का समय मोक्ष का काल है। अयोग केवली के अन्त समय में मोक्षत्व मान लेने पर मोक्ष का अतीत गुणस्थानत्व घटित नहीं हो सकता। मोक्ष का चौदहवें गुणस्थान के भीतर रहने का प्रसंग आयेगा। परन्तु मोक्ष गुणस्थानातीत होता है। . यदि कहो कि लोक के अग्रस्थान समयवर्ती मोक्ष के अतीत गुणस्थानत्व कहना ही युक्त है तो परम निर्जरा से मोक्ष का अन्यत्व सिद्ध हो गया। तथा निश्चय नय से लोक के अग्रभाग में स्थित होना ही उसके मोक्षत्व की व्यवस्था है अत: परम निर्जरा से मोक्ष तत्त्व भिन्न है। इसलिए जीवादि सात तत्त्वों के कथन का क्रम हेतुविशेष की अपेक्षा से है, ऐसा कहना उचित ही है। तत्त्व किसे कहते हैं ? वा तत्त्व क्या वस्तु है? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं- "सर्व पदार्थों में सामान्य रूप से रहने वाला सर्वनाम में तत्' शब्द कहा गया है। उस 'तत्' शब्द का जो भाव है परिणमन है वह तत्त्व' कहलाता है। सामान्य की अपेक्षा तत्त्व एक ही है (अर्थात् व्याकरण की दृष्टि से भाव को एकवचन रूप ही माना गया है अत: तत्त्व शब्द एकवचन और नपुंसक लिंग है।) परन्तु तत सामान्य के आश्रित होने से जीवादिक के बहवचनत्व कहा गया है। अर्थात तत्त्वं एक वचन और जीवादि को बहुवचन कहा गया है। भाव और भाववान में कथञ्चित् भेद मानना विरुद्ध भी नहीं है। इसलिए व्यक्तियों के बहुत्व को प्रसिद्ध करने के लिए समासान्त मोक्ष पद को बहुवचन कहा है, क्योंकि भाव एक होते हुए भी व्यक्तियाँ बहुरूप से सदा प्रसिद्ध हैं।॥२४-२५ //
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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